मृत्यु होने पर परिवार में बारह दिनों का शोक ही क्यों रखते हैं, उससे कम या ज्यादा क्यों नहीं?
12 दिन बैठे रहने की परम्परा ऐसे ही नहीं बनाई गई है।यह पूरी तरह से वैज्ञानिक है। अब लोगों के अंदर इसको समझने की क्षमता नहीं रही है। वैसे लोग बचे ही नहीं है। असल मे जब हम मर जाते हैं तो मरने के तुरन्त बाद हमारी वासनाएं एक शरीर बनाती हैं जिसको प्रेत शरीर कहते हैं। और यहीं से हमारे कर्मों का क्षय होना शूरू हो जाता है। चूंकि इस वक्त हमारे कर्में का ढांचा तीव्र होता है।तो कर्म के खाली होने का थोड़ा इंतजार करना होता है। जब 12 दिन बीत जाते हैं तो कर्म थोड़े खाली होते हैं । उसके बाद ही आत्मा दूसरे लोको मे जा सकती है। क्योंकि वह थोड़ी हल्की हो जाती है। इसके अलावा उसका मोह कम हो जाता है।
कुछ क्रियाओं की मदद से 12 वे दिन उसके मोह को समाप्त किया जाता है। चुंकी अधिकतर लोगों की वासनाएं 12 दिन के अंदर कम हो जाती है। हालांकि एक दिन बढ़ने या कम होने के पीछे की वैज्ञानिकता को तो कोई योगी ही बता सकता है। हालांकि एक ऐसे इंसान के लिए 12 दिन बैठने की जरूरत नहीं है जो योगी होता है क्योंकि वह अपनी वासनाओं को पहले ही नष्ट कर चुका होता है। लेकिन हम यह पता नहीं लगा सकते हैं कि कौन वासनाए को पकड़े रखा है।इसलिए सभी के 12 दिन करने जरूरी होते हैं।
मरने के बाद बुद्धि नहीं होती है। बस वह एक संग्रहित की गई मैमोरी की भांति होता है। जिसके अंदर गाने तो होते हैं लेकिन मैमोरी खुद गाने के अंदर कोई कांट छांट नहीं कर सकता है।कांट छांट के लिए प्रोसेसर की आवश्यकता होती है। हमारा शरीर वही प्रोसेसर होता है।