एकलव्य ने अपना अंगूठा काटने का बदला गुरू द्रोणाचार्य से कैसे लिया था?

महाभारत काल का एक महान और सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है। एकलव्य एक ऐसा श्रेष्ठ धनुर्धर था जिसके सामने अर्जुन और कर्ण भी कुछ नहीं थे।

एकलव्य ने अपने गुरु की मूर्ति से से शिक्षा ग्रहण की थी और धनुर्विद्या में निपुण हुआ था। एक बार की बात है जब द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के साथ जंगल में गए हुए थे, तब एकलव्य को देखकर उनका कुत्ता भौंकने लगा, तभी एकलव्य ने अपने तीर से उस कुत्ते के मुंह को बंद कर दिया, जिसे देखकर द्रोणाचार्य काफी ज्यादा प्रभावित हुए और जान गए कि भविष्य में यह लड़का अर्जुन से भी ज्यादा शक्तिशाली और श्रेष्ठ धनुर्धर बनेगा। उसके बाद द्रोणाचार्य ने एकलव्य के साथ छल कर दिया और एकलव्य से गुरु दक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया।

एकलव्य खुशी-खुशी अपने दाहिने हाथ का अंगूठा अपने गुरु को दक्षिणा में दे दिया। बता दे की एकलव्य देवश्रवा का पुत्र था, जब रुक्मणी का स्वयंवर चल रहा था, तब एकलव्य अपने पिता की जान बचाते हुए मारा जाता है। क्योंकि वह धनुर्विद्या में उस समय उतना निपुण नही था जितना वह पहले हुआ करता था। भगवान श्री कृष्ण ने एकलव्य के बलिदान से प्रभावित होकर उसे वरदान देते हैं कि वह अगले जन्म में अपना प्रतिशोध लेगा।

और आगे जाकर महाभारत युद्ध के दौरान द्रोणाचार्य का वध जिस धृष्टद्युम्न ने किया था वह कोई और नहीं बल्कि एकलव्य ही था जिसका पुनर्जन्म हुआ था।

उसने कोई बदला नहीं लिया. वह विल्कुल अच्छे शिष्य कि तरह गुरु और गुरुकुल के लोगो कि सेवा में मन से लगा रहा. उसने अंगूठा कट जाने के बाद भी अपनी अँगुलियों से हि धनुष और वन संधान कि अभ्यास कि और धनुर्विद्या में काफ़ी कुशल हो गया. उसने द्रोणाचार्य के गिरू दक्षिणा को खुश होकर दिया तथा अपने मन में उनके लिए कोई द्वेष या वैर भाव नहीं रखा वल्कि वह अपने आप को धन्य समझता था की गुरु की सेवा और आज्ञा या अनुरोध का कर्तव्य पूर्ण रूप से निभाया. द्रोणाचार्य ने भि इस बात को ज्यादा तूल नहीं दोय. जैसे उन्होंने पांडव और कौरवों से गुरु दक्षिणा में राजा द्रुपद को हरवाया था और उसका आधा राज्य हड़पकर और आधा उसपर छोड़कर महान बन गए थें. इसी तरह यहां भि अपने शिष्य के अंगूठे को भि उन्होंने सामान्य तरह से लिया. शिष्य भि फिर से अपना काम करता रहा और कुशलता हासिल कर ली विना अंगूठे के हीं।

इसके पिता हिरण्यधनु श्रंगवेरपुर के निषादराज थें. इसकी माता का नाम सुलेखा था. इस्का एक नाम अभिद्युम्न या अभय भी था. इस्का विवाह सुपिता एक निषाद कन्या से हुआ. यह भी अपने राज्य में चला गया और मगध नरेश जरासंध का सहयोगी बनकर और उसके साथ मथुरा पर भी आक्रमण किया. इसी तरह के किसी युद्ध में श्रीकृष्ण ने इसको मार दिया था।

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