1971 भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान बहादुरी की मिसाल कायम करने वाले अरुण खेतरपाल जी (परमवीर चक्र) ने दुश्मन को कैसे टक्कर दी थी?

दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण खेतरपाल जी सिर्फ 21 वर्ष के थे जब वह 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान बसंतर की लड़ाई में शहीद हुए।

ब्रिगेडियर एम एल खेतरपाल जी के पुत्र अरुण (जन्म 1950) बचपन से ही एक होनहार छात्र थे। कॉलेज के बाद अरुण के पास शिक्षा के दो रास्ते थे, IIT और NDA, लेकिन वह अपने हृदय में एक बहुत बड़ा उद्देश्य लेकर चल रहे थे।

1965 भारत-पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर तारापोर (परमवीर चक्र) जी को अरुण अपना आदर्श मानते थे।

राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) में पढ़ाई और भारतीय सैन्य अकादमी (IMA) में ट्रेनिंग पूरी करने के बाद अरुण 17 पूना हॉर्स रेजिमेंट में कमीशन किए गए। ये एक संयोग था कि 17 पूना हॉर्स अरुण के आदर्श कर्नल तारापोर जी का ही रेजिमेंट था।

1971 में युद्ध होने की संभावना अधिक हो चुकी थी। जब अरुण के रेजिमेंट को सीमा पर जाने का आदेश मिला, अरुण एक यंग ऑफिसर्स कोर्स के लिए चुन लिए गए। ये कोर्स हर जवान के लिए जरूरी होता है, इसको पूरा किए बिना अरुण युद्ध में भाग नहीं ले सकते थे। लेकिन अगर कोर्स करने जाते, तो चलते कोर्स की वजह से युद्ध में भाग ना ले पाते।

निराश अरुण ने उनके कमांडिंग अफसर कर्नल हनूत सिंह जी से निवेदन किया कि उन्हें युद्ध में भाग लेने दिया जाए। कर्नल सिंह ने नौजवान अरुण की भावनाओं को देखते हुए यूनिट में एक “मिनी कोर्स” का आयोजन किया। अरुण ने इस कोर्स को पूरा किया और रेजिमेंट के साथ सीमा की ओर निकल पड़े।

17 पूना हॉर्स रेजिमेंट कश्मीर के पास शकरगढ़ (पंजाब) में तैनात किए गए। 1971 के युद्ध की शुरुआत में पाकिस्तान को इस इलाके में बढ़त मिल गई। लेकिन ग्रनेडिएर रेजिमेंट के कर्नल होशियार सिंह जी की बहादुरी से पाकिस्तान को पैर पीछे खींचने पड़े।

युद्ध के आखिरी दिन 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान जवाबी हमले की तैयारी में था और इसी जवाबी हमले का सामना 17 पूना हॉर्स रेजिमेंट कर रहे थे।

पाकिस्तान ने पहला जवाबी हमला 17 पूना हॉर्स रेजिमेंट की ब्रावो स्क्वार्डन पर किया। ब्रावो स्क्वार्डन के कमांडर ने सहायता का संदेश भेजा, जिसका जवाब बिना किस आर्डर की प्रतीक्षा किए अल्फा स्क्वार्डन की ओर से दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण ने दिया और रेजिमेंट के साथ सहायता के लिए निकल पड़े।

दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण ने अपने टैंक के साथ तेज गति से बढ़ते हुए पाकिस्तानी कवच पर तगड़ा जवाबी आक्रमण किया। इस आक्रमण के सामने पाकिस्तान का आक्रमण फीका पड़ गया।

दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण और उनकी सेना के हमले से पाकिस्तान को गहरा नुक्सान पहुँच रहा था लेकिन वो फिर से इकठ्ठा होकर जवाबी आक्रमण करने लगे। इस कड़े मुकाबले में दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण और उनके रेजिमेंट के 3 टैंकों ने पाकिस्तान के 10 टैंक ढेर कर दिए।

लेकिन इसी दौरान दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण के टैंक पर एक गोला लगा जिससे उनका टैंक आगे बढ़ने में असमर्थ हो गया। लेकिन दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण ने फिर भी अपने टैंक को नहीं छोड़ा और हमला करते रहे। दूर से युद्ध को देख रहे कमांडिंग अफसर ने रेडियो पर दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण को टैंक छोड़कर वापिस आने को कहा, लेकिन जवाब में अरुण ने कहा,

“नहीं सर, मैं टैंक को नहीं छोडूंगा। जब तक मेरे टैंक की तोप काम कर रही है, मैं इन सब को मारता रहूँगा”

पाकिस्तान का आखिरी टैंक दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण के टैंक के सामने आकर खड़ा हो गया। दोनों ने एक दूसरे पर फायर किया। पाकिस्तानी टैंक का कमांडर फुर्ती से टैंक से बाहर निकल गया, परंतु दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण उनके टैंक के अंदर जख्मी हो गए और शहीदी प्राप्त कर गए।

दुश्मन के टैंकों को जो रास्ता चाहिए था, दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण उसमें चट्टान बनकर तने रहे। एक भी पाकिस्तानी टैंक दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण से आगे नहीं बढ़ पाया।

शहीद दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण के पार्थिव शरीर और टैंक को भारतीय सेना को लौटाया गया। 17 दिसंबर 1971 को शहीद दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण का अंतिम संस्कार किया गया और अस्थियों को परिवार को सौंपा गया।

दूसरे लेफ्टिनेंट अरुण खेतरपाल जी को मरणोपरांत देश के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से नवाजा गया।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *