सत्संग के सही मायने क्या हैं? जानिए

सत्संग का अर्थ है–( सत् + संग) सत् का संग। जिनका कभी न कभी विनाश होता है उसे असत् कहा जाता है और जिसका कभी भी विनाश नहीं होता है उसे असत् कहते हैं। इस दृष्टिकोण से देखें हैं तो एकमात्र परमात्मा ही सत्य है, और जो कुछ भी है वह असत्य है।

इस प्रकार ‘सत्संग’ का शाब्दिक अर्थ है, सत का संग यानि परमात्मा का संग। ऐसा संग साधना की उच्चावस्था में पहुंचे हुए विरले साधु-संतों को प्राप्त होता है।

जब तक परमात्मा का संग ना मिला हो तब तक व्यक्ति को सच्चे साधु-संतों का संग करना चाहिए; क्योंकि सच्चे साधु-संतों को परमात्मा का प्रतिरूप माना गया है। इसके पीछे भी तर्क है। वेद कहता है—‘ब्रह्म वेत्ता ब्रह्म एव भवति।’ अर्थात ब्रह्म को जानने वाला स्वयं ब्रह्म हो जाता है।

इसी दृष्टि से सच्चे संतों को परमात्म-स्वरुप माना जाता है। ऐसे सच्चे संत का संग भी मिल जाए तो यह भी परमात्मा के संग के समतुल्य है या यों कहें कि यह भी सत्संग है। यही कारण है कि भगवान श्री राम ने शबरी को उपदेश देते हुए कहा था– प्रथम भगति संतन कर संगा। दूसरी रति मम कथा प्रसंगा।। वास्तव में सत्संग ही पहली भक्ति है। यानी यदि भक्ति करने की इच्छा जागृत हो जाए तो सर्वप्रथम सच्चे साधु संतों का संग करना चाहिए। तभी भक्ति का आंतरिक मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

अब हमलोग सत्संग शब्द के वास्तविक भाव को समझें। ऐसा संग जिसके परिणाम स्वरूप हमारे विचार सात्विक और पवित्र हों, हमारे आचरण में सुधार हो, हमारे अंदर सद्गुण का विकास हो और दुर्गुण का विनाश हो, उसे सत्संग कहना चाहिए।

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