महाभारत का युद्ध का अंत किस प्रकार हुआ?
महाभारत के अंत मे जब दुर्योधन के मामा शकुनि का वध पांडु पुत्र सहदेव ने कर दिया तो दुर्योधन को विश्वास हो गया कि अब उसकी मृत्यु अति निकट है क्योंकि उसकी सेना भी नष्ट हो चुकी थी, अतः उसने कृपाचार्य अश्वत्थामा और कृत वर्मा के साथ मिलकर छिप जाने की सलाह बनाई ताकि मृत्यु से बचा जा सके।
जिसमें कायर दुर्योधन जंगल में जाकर एक सरोवर के तल में जाकर बैठ गया और मंत्र से जल स्तंभन कर लिया जिससे सारा जल जम कर बर्फ हो गया। और उसके तीनो योद्धा आसपास जंगल में छिप गए।
यह सब लीला पांडवो के गुप्तचरों ने देख ली और पांडवो को सूचित कर दिया जिससे पांडवो ने भगवान श्री कृष्ण और कुछ सेना और राजाओं के साथ मिलकर सरोवर में धावा बोल दिया और धर्मराज युधिस्ठिर जी ने जल स्तंभन को मंत्र शक्ति से नष्ट कर दिया जिसके बाद दुर्योधन का खूब मजाक उड़ाया गया जैसे कायर दुर्योधन और उसके कायर योद्धाओं ने मिलकर महान योद्धा अभिमन्यु के साथ किया था और उस बेचारे निहत्थे वीर का वध बड़ी निर्दयता पूर्वक क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध किया था।
कायर दुर्योधन सरोवर से निकलने में भय से कंप रहा था फिर भी उस कायर की नपुंसकता पर वार उससे सहन नहीं हुए तो वह बाहर आया और डिंगे हांकने लगा जिससे धर्मराज जी ने उसे किसी भी पांडव से युद्ध करने की छूट देदी और वचन दिया कि एक पांडव को हरा देगा तो सभी हार जाएंगे।
खैर बलराम का शिष्य होने की वजह से उसने भीम को चुना गदा युद्ध हेतु और एक भीषण युद्ध में पापी दुर्योधन की जांघों को भीम ने चकनाचूर कर डाला और उसको मृत्यु द्वार तक भेज दिया।
इस युद्ध में दुर्योधन बुरी तरह परास्त हुआ। पर फिर भी उस कायर ने सांस रोक ली और मरने का नाटक किया।
पांडवो के जाने के बाद उसके तीनों योद्धा रात्रि में उसके पास आये और उसकी हालत देखकर तीनो कायरों ने पांडवों का रात्रि में ही छिपकर वध करने का प्रण लिया और पांडवो के शिविरों में जाकर उनके पुत्रों की हत्या यह समझ कर की के वे सब पांडव ही थे जबकि वह पांडव नहीं अपितु उनके पुत्र थे चूंकि पांडव प्रायश्चित करने श्री कृष्ण जी के साथ गए थे नदी तट पर यही विधि का खेल था जिसमें पांडवों को कायरों के हांथो नहीं मरना था।
खैर इसके बाद जब पांडव शिविरों में लौटे तो वहां की दशा देखकर प्रतिशोध की आंधी में जलने लगे और अश्वत्थामा की तलाश में निकल पड़े जिसके बाद एक ऋषि के आश्रम में उसे साधु वेश में मिले जहां उस मूर्ख अश्वत्थामा ने भयानक ब्रम्हाशिर अस्त्र का प्रयोग पांडवों से प्रतिशोध लेने के लिए किया जिसे अर्जुन ने अपने ब्रम्हाशिर अस्त्र के प्रयोग से सँभाला परंतु उन ऋषि ने उन्हें टकराने से रोक लिया और आदेश दिया कि दोनों अपने अस्त्र वापस ले लेवें परंतु अश्वत्थामा ने ऐसा न करके अजन्मे अभिमन्यु पुत्र की ओर संधान किया जिसके प्रभाव को नष्ट करने हेतु भगवान श्री कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का प्रयोग किया और ब्रम्हा जी से विनती की के वे अपना ब्रम्हाशिर वापस लेलें।
अब अश्वत्थामा अपनी हार से पूरी तरह टूट गया उसके अहंकार ने ही उसका विनाश कर दिया। फिर भीम ने उसकी मणि भी निकाल ली और फिर भगवान श्री कृष्ण ने इस सृष्टि अंत तक डर डर भटकने का श्राप दे दिया तब से लेकर आज भी अश्वत्थामा भारत में भटक रहा है और प्रलय के इन्तजार में पागल है वह चाहता है कि कितनी जल्दी प्रलय आये और उसे प्रभु के श्राप से मुक्ति मिले। इसके बाद स्वार्थी धृतराष्ट्र का भीम को अपनी भुजाओं से चकनाचूर करने की घटना भी अंत में घटती है जो आखिरी प्रतिशोध होता है कौरवों के जिसमें भीम का पुतला शहीद होता है।
तो प्रतिशोध की यह लड़ाई इसी तरह खत्म होती है जिसमें वीर बर्बरीक से भी राज पता चलते हैं कि सारी लीला प्रभु का सुदर्शन चक्र कर रहा था पांडव तो सिर्फ जरिया थे प्रभु के लीला करने को।
कुछ लोग पूंछते हैं कि फिर संजय उसकी दिव्यदृष्टि से क्यों नहीं सुदर्शन चक्र को देख पाया संघार करते हुए? वो इसलिए क्योंकि संजय मोक्ष को प्राप्त नहीं हुआ था परंतु वीर बर्बरीक हो चुका था। और दिव्यदृष्टि यानी तीसरे नेत्र की अलग अलग सीमाएं है सब के लिए। वह भी योग्यता के अनुसार ही खुलता है क्योंकि उसके पूर्ण खुलने की योग्यता है जीते जी मोक्ष।