कुंडलिनी जागृत करने की विधि क्या है?

कुंडलिनी शक्ति को समझने के लिए सबसे पहले हमे ब्रह्म और शक्ति को समझना होगा. ब्रह्म सर्वशक्तिमान है, वो हर जगह विराजमान है और वो निर्विकार है किन्तु उसे मूढ़ अर्थ अज्ञानी और गुम सुम बैठा रहने वाला भी कहा जाता है. किन्तु सोचो कि अगर ब्रह्म ही जो हर जगह विराजमान है जिसके बिना कुछ भी नही अगर वो ही गुम सुम बैठा रहे तो सृष्टि का सृजन और उसका पालन कौन करेगा.

इसीलिए ब्रह्म को जगाने की आवश्यकता होती है. इसी स्थिति को देखते हुए शक्ति अर्थात शिव ने मदद की. इसी शक्ति को या इस शक्ति के तत्व को ही कुंडलिनी कहा जाता है. ये शक्ति ब्रह्म को कार्य करने के लिए उर्जावान बना कार्यशील बनती है. कुंडलिनी शक्ति को दुसरे अर्थ में आप नीचे दिए प्रकार से भी समझने की कोशिश करें।

ईश्वर की पराशक्ति जिसे हम माता पार्वती, लक्ष्मी, दुर्गा या काली इत्यादि नामो से पुकारते है वो ईश्वर का ही हिस्सा होती है. जब ईश्वर और ईश्वर की ये पराशक्ति मिलती है तो ईश्वर के उस भाग को अर्धनारीश्वर कहा जाता है. परमपिता प्रमेश्वर की इसी पराशक्ति को कुंडलिनी कहा जाता है.

मनुष्य की ये कुंडलिनी शक्ति या दिव्य शक्ति मनुष्य शरीर की रीढ़ की हड्डी के नीचे मूलाधार में स्थित होती है. किन्तु जब तक इसे जगाया ना जाएँ ये वहाँ साढ़े तीन आंट लगाकर सोती रहती है. इन्ही आंटो को कुंडली कहा जाता है. और क्योकि ये शक्ति है तो इसे कुंडलिनी शक्ति कहा जाता है.

इसके जागरण की प्रक्रिया के दौरान ये शक्ति ऊपर की तरफ बढती रहती है. इस शक्ति पर ईश्वर का नियंत्रण होता है इसीलिए इसके इतने शक्तिशाली और प्रचंड वेग के होने के बाद भी ये अनुशासित और नियंत्रित रहती है. ये धीरे धीरे ऊपर बढ़ते हुए 6 चक्रों को पार करती है और सहस्रार चक्र तक पहुँच जाती है.

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