भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों किया था कर्ण का अंतिम संस्कार? जानिए

जिस समय कर्ण मृत्युशैया पर थे, श्रीकृष्णजी उनके पास उनके दानवीर होने की परीक्षा लेने के लिए पहुंचे। कर्ण ने श्रीकृष्णजी से कहा कि उसके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है। इस पर श्रीकृष्ण ने उनसे उनका सोने का दांत मांग लिया।

कर्ण ने अपने समीप पड़े पत्थर को उठाया और उससे अपना दांत तोड़कर श्रीकृष्णजी को दे दिया.श्रीकृष्ण ने कहा यह स्वर्ण तो जूठा है। इस पर कर्ण ने अपने धनुष से धरती पर बाण चलाया तो वहां से गंगा की तेज जलधारा निकल पड़ी उससे दांत धोकर कर्ण ने कहा अब तो ये शुद्ध हो गया। श्रीकृष्णजी ने तब कर्ण से कहा था कि ‘‘तुम्हारी यह बाण गंगा युग युगों तक तुम्हारा गुणगान करती रहेगी।‘‘ घायल कर्ण को श्रीकृष्णजी ने आशीर्वाद दिया था कि ”जब तक सूर्य, चन्द्र, तारे और पृथ्वी रहेंगे, तुम्हारी दानवीरता का गुणगान तीनों लोकों में किया जाएगा। संसार में तुम्हारे समान महान दानवीर न तो हुआ है और न कभी होगा।”

कर्ण ने एक बार फिर अपने दानवीर होने का प्रमाण दिया जिससे कृष्ण काफी प्रभावित हुए।श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा कि वह उनसे कोई भी वरदान मांग़ सकते हैं। कर्ण ने कृष्णजी से कहा कि एक निर्धन सूत पुत्र होने के कारण उसके साथ बहुत छल हुए हैं।अगली बार जब कृष्णजी धरती पर आएं तो वह पिछड़े वर्ग के लोगों के जीवन को सुधारने के लिए प्रयत्न करें।

इसके साथ कर्ण ने दो और वरदान मांगे। दूसरे वरदान के रूप में कर्ण ने यह मांगा कि अगले जन्म में कृष्णजी उन्हीं के राज्य में जन्म लें और तीसरे वरदान में उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा कि उनका अंतिम संस्कार ऐसे स्थान पर होना चाहिए जहां कोई पाप ना हुआ हो। उनकी इस इच्छा को सुनकर श्रीकृष्णजी दुविधा में पड़ गए थे क्योंकि पूरी पृथ्वी पर ऐसा कोई स्थान नहीं था, जहां एक भी पाप नहीं हुआ हो। ऐसी कोई जगह न होने के कारण श्रीकृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपने ही हाथों पर किया। इस तरह दानवीर कर्ण मृत्यु के पश्चात साक्षात वैकुण्ठ धाम को प्राप्त हुए।

तापी पुरान के अनुसार जब कुरूक्षेत्र युद्ध में दानेश्वर कर्ण घायल होकर गिरे तो कृष्ण ने उनकी अंतिम इच्छा पूछी थी। कर्ण ने कहा – द्वाारिकाधीश मेरी अंतिम इच्छा है कि तुम्ही मेरा अंतिम संस्कार, एक कुंवारी भूमि पर करना। सूरत में तापी नदी ही कुवांरी नदी है, जिसे क्वांरी माता नदी भी कहा जाता है, इस नदी के किनारे कर्ण का मंदिर है। सूरत का चारधाम मंदिर, तीन पत्रो का वट वृक्ष कर्ण के अंतिम संस्कार के साक्ष्य रूप हैं।

तापी नदी के किनारे कर्ण का शवदाह किए जाने के पश्चात् पांडवों ने जब कुंवारी भूमि होने पर शंका जताई तो श्रीकृष्णजी ने कर्ण को प्रकट करके उससे आकाशवाणी द्वारा कहलाया था कि अश्विनी और कुमार मेरे भाई हैं। तापी मेरी बहन हैं। मेरा कुंवारी भूमि पर ही अग्निदाह किया गया है। पांडवों ने कहा हमें तो पता चल गया परंतु आने वाले युगों को कैसे पता चलेगा? तब भगवान कृष्ण ने कहा कि यहां पर तीन पत्रों का वट वृ़क्ष होगा जो ब्रह्मा, विष्णु, और महेश का प्रतीक रूप होगा।

कर्ण के जीवनवृत पर श्री शिवा जी सावंत द्वारा लिखी गई ‘मृत्युंजय’ नामक पुस्तक में भी इसका वर्णन मिलता है।

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