बैकुंठ धाम के द्वारपाल जय और विजय को श्राप किन मुनियों ने दिया था?

किसी एक समय ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सनक, सनंदन, सनातन एवं सनतकुमार आजीवन संसार से वैरागी हो त्रिभुवन की परिक्रमा करके भगवान श्रीहरि के सर्वधाम वैकुंठ में उपस्थित हुए। वैकुंठ का सौंदर्य और शोभा अपूर्व है लेकिन वे मुनि वैकुंठ की सुंदरता देखकर समय नष्ट नहीं करना चाहते थे अपितु श्रीहरि के दर्शन के लिए व्याकुल हो रहे थे।

भगवान के दर्शन हेतु वे उतावले थे और वैकुंठ धाम के 6 फाटकों को पार करते हुए सातवें फाटक पर उपस्थित हुए। वहां उन मुनियों ने देखा कि दो द्वारपाल बहुमूल्य रत्न पहने, हाथों में गदा धारण किए और अत्यंत तेजस्वी रुप में द्वार की पहरेदारी कर रहे हैं।

पहले के द्वारों पर किसी ने उन मुनियों को नहीं रोका था इसलिए बिना जय विजय की अनुमति लिए वे चारों धाम में प्रवेश करने के लिए आगे बढ़े। वे चारों मुनि आत्मदर्शी, समभाव वाले थे, पूर्ण ज्ञान होने के बावजूद वे पांच साल के शिशु के समान रहते थे। वे मुनि नग्न अवस्था में निर्भय होकर प्रत्येक लोकों में आवागमन करते थे।

उन मुनियों को आगे बढ़ता देखकर जय विजय ने लाठी से उनको रोक लिया और मुनियों का उपहास उड़ाने लगे। मुनियों ने कहा भगवान की अत्यंत सेवा करने के बाद इस वैकुंठ धाम में रहने का अवसर मिलता है, हमें लगा तुम दोनों भी भगवान की तरह समदर्शी होगे लेकिन तुम तो नीच‌ स्वभाव के प्रतीत होते हो।

हे द्वारपालों तुम कपट स्वभाव के जान पड़ते हो जो हमें हमारे भगवान के दर्शन से वंचित रखना चाहते हो, भला भगवान विष्णु कब अपने भक्तों से नहीं मिल सकते ? इस तरह दोनों पक्षों में तीखी बहस होने लगी, अब उन मुनियों को हरि की मायानुसार क्रोध उत्पन्न हो जाता है और वे जय और विजय की भर्त्सना और धिक्कारते हुए कहते हैं-

अरे मूर्खों तुम दोनों ने हमें हमारे भगवान से दूर रखा इसी भांति तुम दोनों भी भगवान विष्णु से अत्यंत दूर हो जाओगे और काम क्रोध के वशीभूत होकर मृत्यु लोक में राक्षस बन कर दंड भोगोगे।

इतना कठोर शाप सुनकर दोनों द्वारपाल मुनि कुमारों के पैरों पर गिर पड़े, यह सब कोलाहल सुनकर साक्षात नारायण द्वार पर उपस्थित हुए

ऋषियों के अपमान की बात सुनकर श्रीहरि बहुत घबराए और उन्होंने उन मुनि बालकों से द्वारपालो की धृष्टता के लिए क्षमा मांगा।

श्रीहरि की शोभा देखकर, उनके वनमाला, कौस्तुभ मणि, कौमुदकी गदा एवं विशाल वक्षस्थल देखकर मुनि कुमार क्रोध भूलकर आनंद विह्वल हो गये। सनकादि मुनियों ने भगवान विष्णु की बहुत प्रकार से स्तुति की और बोले हे श्रीहरि हमने आपके द्वारपालों को शाप देकर अनुचित ही किया।

तब भगवान बोले हे मुनियों मैं आपसे अत्यंत प्रसन्न हूं, इन दोनों ने आपके आगमन की सूचना मुझे ना देकर मनमाना आचरण किया , आप लोगों के अपमान की वजह से मेरे प्राणों को अत्यंत कष्ट हुआ, यदि आप इन्हें शाप ना देते तो मैं इन्हें दंड देता।

इस प्रकार भगवान और उनके परम भक्त के बीच रुकावट बनने के कारण जय और विजय को धरती लोक में आकर दंड भोगना पड़ा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *