किसान आन्दोलन के नाम से दिल्ली में अराजकता को आप किस तरह से देखते हैं?

अराजकता निश्चित तौर पर अच्छी नही है और भीड़ का यह मान लेना कि वो ताकत के बल पर अपनी बातों को मनवा लेंगे बिल्कुल सही नही है।लेकिन मैं किसी भी आंदोलन को किसी एक बिंदु के या घटना से परिभाषित नही करता।किसान आंदोलन में अराजकता का होना एक निश्चित तौर पर गलत है लेकिन ये तो ज्वालामुखी के विस्फोट की स्थिति पर चर्चा मात्र है।इस ज्वालामुखी में लावा क्यों उत्पन्न हुआ और क्यों एक ऐसी स्थिति बनी की लावा इस तरह बाहर आया,ये प्रश्न भी विचारणीय है।

याद करिये वो दिन जब ये किसान बिल संसद में पास हुए थे,विपक्ष ने वोटिंग मांगी थी इसके बाद भी बिल ध्वनि मत से पारित किया गया।सदन ने हंगामे के बीच गरिमा के निम्नतर स्तर को देखा। शीत कालीन सत्र में संसद नही चली जबकि पूरे देश मे ज्यादातर गतिविधियां सामान्य रूप से चल रही हैं,रैली हो रहीं हैं चुनाव हो रहे हैं।

संसदीय बहस लोकतंत्र का प्रेशर वाल्व है और जो चर्चा आज किसानों के सड़क पर आने के बाद हो रही है वो संसद में होती तो शायद ये स्थिति नही आती यदि बिल सेलेक्ट समिति में चला जाता और कुछ सुझाव और परिवर्तन के बाद लागू हो जाता तो शायद यह स्थिति नही आती।

पिछले कुछ दिनों में लगभग सभी बिल बिना सार्थक बहस के पास हुए हैं जिससे बिल के एक्ट बनने के दौरान संसदीय विमर्श को केवल औपचारिकता मात्र मानकर बिल पास किये गए हैं।आधार बिल को मनी बिल की तरह पास किया गया जिसे निजता के मुद्दे पर लगभग उच्चतम न्यायालय ने खारिज किया।लेबर कोड बिल पर भी सार्थक बहस नही हुई है,लोकतंत्र में सुधारों के लिए एक प्रक्रिया है को 150 सालों के हमारे संसदीय इतिहास में परिपक्व हुई है और इस प्रक्रिया को हमारे संविधान निर्माताओं ने बेहतरीन तरीके से आत्मसात किया था।हमें अपने संसदीय लोकतंत्र की प्रक्रियाओं और संसद में विमर्श को बाईपास करने की प्रवृत्ति से बचना होगा जिससे इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।

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