प्राचीन काल में ऋषि मुनि तपस्या करते हुए हजारों साल कैसे जी जाते थे?
सामान्यतया मनुष्य 1 मिनट में बीस बार श्वांस लेता है।जीवन का आधार सांसे ही हैं। दोनों जहां में मात्र एक सांस का ही अन्तर है।सांस चल रही तो इस जहां में सांस टूटी तो उस जहां में।
हम अपने ऋषि मुनियों के ऋणी हैं जिन्होंने मनुष्य के लिए हर स्तर का अगाध ज्ञान दिया है।खेद है हम आधुनिकता के नाम पर ऐसे ज्ञान की अनदेखी करते हैं और उसको अपने जीवन में आत्मसात करने में लज्जा का अनुभव करते हैं साथ ही ऐसे विचारों को दकियानूसी कहते हैं।
हमारे ऋषियों का मन्तव्य था कि यदि हम अपनी सांसों को नियन्त्रित कर लें और उनका उपयोग अपने आवश्यकता के अनुरूप करें तो हम अपना जीवन लम्बा कर सकते हैं क्योंकि मनुष्य के लिये सांसे निश्चित हैं।
इसी नियंत्रण को योग नाम दिया गया जिसका सिद्धांत वाक्य है – योगश्चित्तवृत्ति निरोधः ।
आईये देखते हैं कैसे –
प्रायः मनुष्य 1 मिनट में 20 बार सांस लेता है।
60 मिनट में 1200 बार,
1दिन में 28800 बार
1 साल में 10512000 बार
100 साल में 1051200000 बार।
यहां सौ साल तत्कालीन मनुष्य की आदर्श आयु मानी गई है।
अब उनको इसी निश्चित सांस को 1000 साल में लेना है।
गणितीय क्रिया करने पर यह प्रतिमिनट 2 सांस आती है जो यौगिक क्रियाओं द्वारा उनके लिए असंभव नहीं था ।