दक्षिण भारतीयों के केले के पत्तों पर भोजन करने के पीछे क्या विज्ञान है?

कोई विज्ञान नहीं है। इसकी शुरुआत इसलिए हुई क्योंकि यह धातु के काम का अभाव था और यह एकमात्र उपयुक्त विकल्प था।

वर्षों पहले जब बर्तन नही हुआ करते थे लोगों को अपने भोजन खाने के लिए एक सतह की आवश्यकता थी। तब नवेद दौर आया जब आप एक स्टेनलेस स्टील प्लेट बना सकते थे उन दिनों के दौरान जब ग्रामीणों या आम लोगों के लिए धातु का काम लगभग न के बराबर और महँगा था और केवल राजा और अमीर लोग सिल्वर या गोल्ड से बनी प्लेटों पर खाना खाते थे।

केले के पत्ते खाना खाने के लिए एकदम सही है , इसके लंबे और चौड़े पत्ते होते है और निपटाने में भी आसान है। भोजन के बाद पत्तियों को गायों या मवेशियो को खिला सकते है और इससे बहुत अधिक कचरा या बहुत अधिक प्रदूषण नहीं होगा।

यह उत्तर भारतीय गांवों में अपने भोजन खाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली आम प्लेटें थीं। मेडिवल यूरोप में सभी के लिए वुडन प्लेट्स उपलब्ध नहीं थे इसीलिए यह न्यूनतम प्रदूषण और भोजन खाने का सबसे कुशल तरीका है।

चूंकि जनसंख्या उन शहरों में चली गई जहाँ पर केले के पेड़ नहीं थे और गांवों से शहरों तक आने में 8 से 3 दिन लगते थे, पीतल के बर्तनों और कॉपर प्लेट्स की आवश्यकता में वृद्धि हुई और प्लेट का चलन आम लोगों के सामने आया। अभी भी गांवों से मध्य 1950 तक अच्छी तरह से खाने के लिए केले के पत्ते खरीदे गए। इनको धोने की भी आवश्यकता नही है खाना खाने के बाद इन्हें गाय इत्यादि को खिला देते है इससे गंदगी भी नही फैलती है।

यही कारण है कि कई रेस्तरां आज भी केले के पत्तों पर अपना भोजन देते हैं। यह आसानी से उपलब्ध होते है तथा इस्तेमाल में आसान है अन्यथा इनके पीछे कोई विज्ञान नही है।

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