थेवा कला क्या है? और यह क्यों प्रसिद्ध है?
वा कला राजस्थान की शाही जिला प्रतापगढ़ की एक प्रकार की हस्तकला है। इसका अविष्कार सन 1707 ईस्वी में नाथू जी सोनी नामक एक कारीगर ने किया था। इसकी शुरुआत मुगल काल से हुई है। इस कला में कांच के ऊपर बहुत पतली सी जाली बनाई जाती है यह जाली कांच पर सोने की पतली धार लगाकर बनाई जाती है।
फिर इसके दूसरे चरण में कांच को कसने के लिए चांदी के बारीक तार से फ्रेंम बनाया जाता है।
इसके बाद इसको तेज आग पर तपाया जाता है। उसके बाद शीशे पर सुंदर सी कलाकृति और डिजाइन उभर कर बाहर आ जाती है। जो नायाब और लाजवाब कृति का आभूषण बन जाती है।
जब सोना, कांच में और कांच, सोना में परस्पर एक दूसरे में मिल जाते हैं तो सोने में कांच और कांच में सोना दिखाई पड़ता है इसी को थेवा कला कहते हैं। शुरुआत में इस कला को लाल गुलाबी पत्थरों, पन्ना, हीरो में किया जाता था परंतु अब इसका विस्तार बहुत ज्यादा बढ़ा दिया गया है। अब इसका काम रंग-बिरंगे कांच के शीशों पर किया जाता है।
भारत सरकार ने सन 2004 में थेवा कलाकृति को सम्मान देने के लिए एक डाक टिकट जारी किया था।
थेवा कला में कान की बालियां, गले के आभूषण, मांग टीका, और भी अन्य आभूषण सस्ते दामों में मिल जाते हैं और यह आभूषण इतने सुंदर हैं की देखने वाला देखता ही रह जाता है। इन आभूषणों को छोटी से लेकर के वृद्ध तक सभी लोग पसंद करते हैं। इसकी भव्यता और इनके रंग बिरंगे रंगो को देख कर के लोग इन की ओर आकर्षित होते हैं। थेवा की कलाकृति को देख कर के ऐसा लगता है जैसे मानो किसी कलाकार ने सोने के चित्रपट पर अपनी कल्पनाओं को उकेर दिया हो।