Calling tracks for migrant laborers, life with the help of roads and roads, nobody pays attention

एक जवाब उनको जो पूछ रहे हैं, आखिर मारे गए मज़दूर पटरियों पर सोए ही क्यों थे? आप भी जानिए

महाराष्ट्र के औरंगाबाद में मालगाड़ी ने 16 मजदूरों को कुचल दिया. ये लॉकडाउन के बीच, पटरियों के रास्ते पैदल ही अपने घर जाने को मजबूर थे. जिन रोटियों के लिए कभी इन मजदूरों ने शहरों की ओर सफ़र किया था, वो ही आज घर वापस लौटते वक़्त इनके इर्दगिर्द बिखरी पड़ी हैं. कितने बदनसीब थे ये मज़दूर और कितने कामयाब हमारे शहर! एक रोटी भी इन्हें वापस ले जाने न दी. इन मज़दूरों के परिवार बिलख रहे हैं. मां, पत्नी, बच्चे सब की आंखों में आंसू हैं.

इस बीच कुछ लोग ऐसे भी हैं जो, लोग सवाल उठा रहे हैं कि आख़िर इन लोगों को रेल की पटरी पर सोने की ज़रूरत क्या थी? क्या ये लोग मूर्ख थे? क्या इन्हें दूर से आती मालगाड़ी की आवाज तक सुनाई दी? आख़िर ये कैसे इतनी सख़्त पटरी पर सो गए?

ये सब ऐसे सवाल हैं, जो शायद सामान्य परिस्थितियों में पूछे जाएं तो एकबारगी ठीक लग सकते हैं. लेकिन भूखे-प्यासे-बेघर कई सौ किलोमीटर अपने घर पैदल जाने को मजबूर मज़दूरों की परिस्थितियों के लिए नहीं. इन लोगों के पास न खाना था और न ही रहने की जगह और कोई रोज़गार भी नहीं. घर से दूर अकेले रोज़ लड़ते गए. बेचारे छटपटा रहे थे. जिन शहरों को इन्होंने बनाया आज उसमें सिर छुपाने के लिए एक छत तक नसीब नहीं. जिन सड़कों को बनाने के लिए डामर के साथ ख़ुद को पिघला दिया, उस पर चलने तक की आज़ादी नहीं.

ये पटरी पर सो गए इसलिए आप इन्हें मूर्ख कह रहे हैं. जनाब, आपकी बात ही मूर्खतापूर्ण है. आपका सवाल ही घिनौना है. आप अपनी सरकारों से सवाल करने के बजाए उससे सवाल कर रहे हैं जो पटरियों पर मौत के हवाले हो गया. इनकी मौत पर दुख जताने के बजाय आप सवाल कर रहे हैं कि ये इतनी सख़्त पटरियों पर सो कैसे गए.

लोग पूछ रहे हैं कि आख़िर सो गए तो क्या इन्हें मालगाड़ी की आवाज़ तक सुनाई नहीं दी. हां, जो मज़दूर दिन-रात हमारी गालियां सुनते हैं, उन्हें आख़िर सामने से आ रही अपनी मौत की आवाज़ सुनाई क्यों नहीं दी! इस वक़्त में घटने वाली घटनाएं और हमारे सवाल सब दर्ज हो रहे हैं. इतिहास हम पर शर्मिंदा रहेगा ये तय है.

हम अपने कमरों में बंद हैं और शायद 2 महीने बाद मौसम का हिसाब भूल गए हैं. शायद सवाल पूछने वाले लोग भूल गए हैं कि ये मई का महीना है और सूरज सर पर तप रहा है. सवाल पूछने वालों ने शायद वो तस्वीर नहीं देखी जिसमें तपती दोपहरी में 2-3 साल का बच्चा सड़क पर नंगे पांव मां-बाप के साथ सैकड़ों मील के सफ़र पर है. शायद लोगों ने उस मां को भी नहीं देखा और साड़ी लपेटे, सिर पर गठरी रखे और बगल में बच्चा संभाले चली जा रही है.

अपने घर. इस उम्मीद में कि कभी तो पहुंच ही जाएंगे उस गांव जहां से कभी चले थे. शायद वो तस्वीरें सवाल पूछने वाले देख नहीं पाए होंगे, छूट गई होंगी. या हो सकता है कि हम इतने अंधे हैं कि हम कुछ भी देख नहीं पा रहे हैं. और ये भी विडंबना है कि हमको अपनी संवेदनाएं जगाने के लिए तस्वीरें चाहिए. हम पढ़ कर सुन कर उनकी तक़लीफ़ों को महसूस नहीं कर पा रहे हैं.

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