1781 में हैदर अली के साथ युद्ध में हार जाने के बाद अंग्रेज़ कर्नल कुट के साथ क्या अविश्वसनीय घटित हुआ?

एक धारणा है कि आयुर्वेदिक और होमियोपैथिक इलाज अगर सही तरीक़े से किया जाए तो किसी भी प्रकार के रोग को जड़ से ख़त्म किया जा सकता है. आयुर्वेद और होमियोपैथी द्वारा सिर्फ़ सर्जरी के गम्भीर केस ही नहीं ठीक किए जा सकते हैं. लेकिन आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज से 400 साल पहले से ही भारत में सर्जरी के बहुत बड़े बड़े विश्विद्यालय हुआ करते थे. हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा में सर्जरी का सबसे बड़ा कॉलेज था. हिमाचल प्रदेश में ही भरमौर और कुल्लू के साथ साथ लगभग 18 ऐसे केंद्र थे जहाँ सर्जरी की शिक्षा दी जाती थी. कहने का अर्थ यह है कि सर्जरी का अविष्कार भारत में हुआ और सारी दुनिया ने सर्जरी भारत से सीखी.

मैं सवाल से भटक नहीं रही हूँ. हाँ, तो सवाल यह है कि 1781 में हैदर अली के साथ युद्ध में हार जाने के बाद अंग्रेज़ कर्नल कूट के साथ क्या अविश्वसनीय घटित हुआ?

कर्नल ‘आयर कूट’ एक अंग्रेज था. उसने अपनी डायरी में लिखा है कि 27 अगस्त’ 1781 में कर्नाटक में हैदर अली ने उसको ‘ पालीलूर के युद्ध’ में पराजित कर दिया और नाक काट दी. हैदर अली चाहता तो उसकी गर्दन काट सकता था लेकिन हमारे देश में नाक काटना बहुत बड़ा अपमान माना जाता है इसीलिए हैदर अली ने उसको हराने के बाद उसकी गर्दन काटने के बजाय नाक काट दी.

कर्नल कूट कटी हुई नाक लेकर घोड़े पर भागा तो किसी ने देखा कि उसकी नाक से खून निकल रहा है. कटी हुई नाक उसके हाथ में थी. उस व्यक्ति ने कर्नल कूट से कहा कि तुम अगर चाहो तो हम तुम्हारी नाक जोड़ सकते है. कर्नल कूट की नाक कट गयी थी लेकिन घमंड नहीं गया था. अकड़ कर बोला कि जब इंग्लैंड में कोई डॉक्टर यह काम नही कर सकता तो तुम कैसे कर दोगे? फिर भी बेलगाँव में कर्नल कूट की नाक को जोड़ने का ऑपरेशन हुआ. ऑपरेशन करीब तीन साढ़े तीन घंटे चला और सफल रहा.

3 महीने बाद वो लंदन पहुंचा लेकिन ख़बर तो पहले ही पहुँच चुकी थी. लंदन वाले हैरान थे कि यह नाक तो कहीं से कटी हुई नही दिखती. कर्नल कूट ने खुद लिखा है कि यह भारतीय सर्जरी का कमाल था.

युगों पहले हमारे देश में विकसित हुई सर्जरी को सीखने के लिए लंदन से डॉक्टर आते थे. इन डाक्टर्स ने लंदन में एक बहुत बड़ी मेडिकल संस्था, फेलो ऑफ़ द रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन(FRS) की स्थापना की. उनमें से कई डॉक्टर्स ने मेमुआर्ट्स (संस्मरण) लिखे हैं. उन मेमुआर्ट्स को पढ़ने से पता चलता है कि 400 साल पहले हमारे भारत देश में राइनोप्लास्टी होती थी. यानि कि शरीर के किसी अंग से माँस काट कर नाक के आसपास हिस्से में उसको जोड़ दिया जाता था.

हमारा दुर्भाग्य है कि जो दुर्लभ विद्या हमारे देश में विकसित हुई, उसे विदेशियों ने सीखा और परिमार्जित किया. विडम्बना देखिए कि हमारी ही विद्या विदेश जा कर फली फूली लेकिन अब इसे पाने के लिए हमारे छात्र विदेश जाते हैं. आज भी अपने देश में प्रतिभा व ज्ञान की कमी नहीं है लेकिन इसका सही उपयोग नहीं होता है. ज्ञान का स्थान नहीं है और प्रतिभा का पलायन हो जाता है. हमारी पहचान अभी भी क़ायम है लेकिन हम भारतीय के रूप में नहीं, भारतीय मूल के रूप में ज़्यादा सफल हैं..

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