हमने देखा है कि कई लोग घरों में पूजा करते समय देवताओं की फोटो को तिलक लगाते हैं, क्या ऐसा करना सही है?

नहीं, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। सरल स्वभाव के निश्छल एवं भोले- भाले लोगों की भावभिव्यक्ति की यही सरलता ही, भगवान् को भा जाती है। अपने भक्तों के इसी भोलेपन के कारण ही तो वे इनके वशीभूत हो जाते हैं।

एक निश्छल भक्त, भगवान् को अपने से अलग नहीं समझता‌ वह तो यह समझता है कि जैसे मैं खाता हूं, वैसे ही भगवान् भी खाते हैं। स्वाभाविक है कि मुंह में ही मिठाई रखी जाएगी। तिलक लगाने का अर्थ, पूजा करने से लिया जाता है। भगवान् की पूजा करेंगे तो क्या तिलक नहीं लगाएंगे। तिलक लगाए बिना, भला पूजा शुरू ही कैसे होगी। इसलिए चित्र अथवा मूर्ति को तिलक लगाना ही चाहिए। भाव पूरा हो जाता है। भावभिव्यक्ति सम्पूर्ण होती है। लगने लगता है कि भगवान् ने पूजा स्वीकार ली है।

मैं और मेरा भगवान् एक जैसे ही हैं। मुझे भूख लगती है तो क्या उनको नहीं लगती होगी। उन्हें भोग लगाए बिना, मैं कैसे कुछ खा सकता हूं। अतः, उनको भोग लगाया। उनके मुंह में मिठाई रखी, जल भी पिला दिया‌‌। अब ठीक है। अब मैं भी कुछ खा सकता हूं।

चित्र को, मूर्ति को भगवान् ही समझ लेना, उनको नहलाना- धुलाना, टीका चन्दन करना, धूप-दीप करना, मिठाई, खीर खिलाना और कुछ नहीं, भगवान् से एकाकार होने का एक प्रयास है। यही भाव, यही समर्पण, यही भोलापन मुझे मिल जाय तो फिर भक्त और भगवान् की अभिन्नता भी सम्पूर्ण हो जाय। मैं उसके प्रेम में समा जाऊं और वह मुझमें समा जाय। कोई भेद न रहे। यही तो निश्छल भक्ति का वरदान है।

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