स्वामी विवेकानन्द मांसाहारी थे तो उन्हें संत क्यों कहा गया? जानिए
“मछली या मांसाहार करने की चाहत समाप्त हो जाती है, जब शुद्ध सात्विकता का विकास होता है; अतः यह सत्य की तरफ बढ़ने का संकेत है।” – स्वामी विवेकानंद
इस बात में कोई दो राय नहीं की स्वामी विवेकानंद मछली एवं मांसाहार का सेवन करते थे। स्वामी जी बंगाल में एक कायस्थ परिवार में जन्मे थे, क्योंकि बंगाल में लगभग 90% लोग मछली एवं मांसाहार का सेवन करते हैं, यही कारण था कि स्वामी जी नें भी बचपन से ही मांसाहार का सेवन किया था…!
यहां तक कि उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस जी भी मछली खाते थे। किंतु ज्ञान की प्राप्ति के बाद स्वामी जी ने मांसाहार का त्याग कर शुद्ध सात्विकता को चुना।
स्कूल के दिनों में जब मुझे यह पता चला कि स्वामीजी मांसाहारी थे, तो इससे मैं बड़ा आहत हुआ। मैंने सोचा, कोई भी सात्विक व्यक्ति कैसे मांसाहार का सेवन कर सकता है। यही सब सोचकर मेरे मन में स्वामी जी के प्रति थोड़ी घृणा भी पैदा हुई। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि मैं एक ब्राह्मण परिवार से हूं।
परन्तु अभी हाल ही के कुछ वर्षों में मैंने यूट्यूब पर स्वामी जी की शिकागो स्पीच सुनी और उसे सुनकर मैं स्वामी जी से बहुत प्रभावित हुआ और उसके बाद मैं लगातार इनके बारे में पढ़ने लगा। आप भी चाहे तो स्वामी विवेकानंद के कई ढेर सारे स्पीच ऑनलाइन पढ़ या सुन सकते हैं।
स्वामी विवेकानंद जी का संपूर्ण जीवन पाखंड रहित था। मांसाहार के प्रति उनका साफ विचार था, की मानव जाति को यदि जीने के लिए मांस खाने की आवश्यकता पड़े तो यह गलत नहीं है। परंतु आपके पास विकल्प रहते हुए भी यदि आप मांसाहार को चुनते हैं तो यह उचित नहीं है।
गलत तो यह है कि हम सत्य की खोज के नाम पर तरह-तरह के पाखंड करते हैं। सत्य की खोज के लिए सर्वप्रथम हमें सत्य को स्वीकारने की क्षमता होनी चाहिए।
स्वामी विवेकानन्द मैकाले द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे, क्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है।
जीवन में सफल बनने के लिए उनके द्वारा एक ही उपदेश है…
“एक विचार लें और इसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचे, सपना देखे और इसी विचार पर जिएं। आपके मस्तिष्क , दिमाग और रगों में यही एक विचार भर जाए। यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं।” – स्वामी विवेकानंद