मीरा बाई को अपने पति ने क्यों त्यागा था?

सबसे पहले बात उनकी जीवनी पर. मीरा के बारे में ज़्यादातर बातें रहस्य हैं. और जितनी जीवनी संबंधित सूचना मिलती हैं वो अधूरी हैं. ये सूचनाएं उनकी भक्ति के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं. और उनकी ज़िंदगी के बाकी पहलुओं पर बात नहीं करतीं. मीराबाई के बारे में मिली सूचनाओं के मुताबिक, वो मेड़ता में 1498 में राजपूतों के राठौड़ वंश में पैदा हुई थीं. ये उस समय मेवाड़ के अधीन था. आज यह जगह राजस्थान के दक्षिण-पश्चिमी इलाके में आती है. तब इस पर सिसोदिया राजपूत राज किया करते थे. उनका शुरुआती जीवन अटकलों का विषय रहा है, लेकिन संभावना है कि वो सामान्य ही बीता होगा.

एक वर्ज़न ये भी है कि मीरा की मां जल्दी गुज़र गई थीं. और उनके जाने के बाद, मीरा को उनके नाना राव दूदाजी ने पाला था. कृष्ण के लिए उनकी भक्ति का ज़िक्र है, लेकिन वो इतना ज़्यादा भी नहीं हुआ है. प्रथा अनुसार, 1516 में शादी करके उन्हें भोजराज को सौंप दिया गया. भोजराज, मेवाड़ के राजा राणा सांगा के सबसे बड़े बेटे थे. मेवाड़ के शाही परिवार में ही मीरा की वो ज़िंदगी बीती, जो आज मीरा की कहानी के तौर पर प्रसिद्ध है. या जिसे क़ालीन के नीचे सरका दिया गया.

राजपूत महिलाओं से तब भी यही उम्मीद की जाती थी कि वो परंपरागत तरीकों से चलें. उनसे उम्मीद की जाती थी कि वो परिवार के मर्दों की कही हर बात का पालन करें, ‘परिवार के सम्मान’ की रखवाली करें और लड़के को जन्म दें. मीरा ने राजपूतों के इन रीति-रिवाज़ों को न मानकर एक निडर लहर पैदा कर दी थी. एक क्रांति चल पड़ी थी.

वैवाहिक जीवन में आने के बाद मीरा ने कुलदेवी को नमन करने से मना कर दिया था. वो खुद को पहले ही गिरिधर को समर्पित कर चुकी थीं. उनकी सास उनसे बहुत चिढ़ती थी. यहां तक कि उनके अपने मायके वाले भी. लेकिन ये तो महज़ शुरुआत थी. उनका ‘कृष्ण के प्रति समर्पण’ इतना आगे निकल गया, जितना किसी ने कभी सोचा भी नहीं होगा.

एक वर्ज़न ये था कि मीरा भोजराज से अपनी शादी को मुकम्मल नहीं मानती थीं क्योंकि उनका मानना था कि उनकी शादी कृष्ण से हो चुकी है. इसलिए धरती पर हुई अपनी शादी को वो ज़्यादा तवज्जो नहीं देती थीं. इसके चलते वो अपने वैवाहिक जीवन को मानने के लिए तैयार नहीं थीं, जबकि परंपराएं उन्हें पारिवारिक रिश्ते तोड़कर संन्यासिनी बनने की अनुमति नहीं देती थीं. उन्होंने दुनिया में रहते हुए भी दुनिया का त्याग कर दिया.

और भी ज़्यादा क्रोधित होकर, खासकर खुद की बेबसी पर, उनके सुसराल वालों ने उन पर ध्यान देना बंद कर दिया. वो इंतज़ार करने लगे इस आस के साथ कि एक दिन मीरा को अहसास होगा कि उनके तरीके गलत हैं और वो परिवार के पास लौट आएंगी. लेकिन मीरा की भक्ति शर्म से परे और निडर थी.

प्रतीत होता है कि भोजराज एक जंग में मारे गए थे (कुछ संस्करणों के मुताबिक 1521 में, और कुछ के मुताबिक 1526 में, जब उनके पिता राणा सांगा और बाबर के बीच जंग हुई थी). कुछ संस्करणों में दिखाया गया कि उन्होंने अपनी पत्नी को सारे अपरंपरागत तौर-तरीकों के साथ ही स्वीकार कर लिया था. फ़िल्मों में उन्हें मीरा को अपनी गुरु के रूप में स्वीकार करते हुए दिखाया गया. राजवंश परिवार में एक विधवा के रूप में भी उन्हें परंपराओं का पालन न करते हुए दिखाया गया. उनका चित्रण पहले की तरह ही कृष्ण की भक्ति में तल्लीन किया गया.

भोजराज के जाने के बाद, मीरा की हरकतों पर लोगों की आपत्ति बढ़ने लगी. उन्हें ज़हर देने की कोशिश की गई और फूलों के नाम पर एक टोकरे में सांप डालकर दिया गया. किंवदंती है कि ये सारी कोशिशें नाकामयाब हुई थीं. जैसे ही मीरा ने प्याला अपने मुंह से लगाया, ज़हर बेअसर हो गया. सांप फूलों की माला में तब्दील हो गया. इसके बाद मीरा को महल से निकाल दिया गया. इसके बाद मीरा जगह-जगह भटकने लगीं, इनमें से ज़्यादातर जगहें कृष्ण संबंधी थीं.

एक वर्ज़न ये भी है कि मीरा ने अपनी ज़िंदगी के इस पड़ाव पर रविदास को अपना गुरु मान लिया था. ये भी लोगों को नागवार था क्योंकि रविदास जाति से तथाकथित रूप से ‘चमार’ थे. एक अछूत, जबकि मीरा ऊंचे घर में पैदा हुई एक राजपूत महिला थीं. वैसे हो सकता है कि रविदास वाली बात खाली एक किंवदंती हो (माना जाता है कि रविदास 1520 में गुज़र गए थे और इसलिए घटनाक्रम मैच नहीं करता). इस कहानी से पता चलता है कि मीरा ने ज़िंदगी भर परंपराओं को चुनौती दी. किंवदंती ये भी है कि 1547 में या तो द्वारका या फिर वृंदावन में मीरा का कृष्ण की मूर्ति में विलय हो गया था.

1994 की किताब ‘Upholding the Common Life: The Community of Mirabai‘ में पारिता मुक्ता ने मीरा के बारे में एक ऐसा फैक्ट उजागर किया, जिसे ज़्यादातर लोग नहीं जानते. जबकि एक तबका है जो ये बात सदियों से अपने बीच दबाए बैठा है. मुक्ता की रिसर्च दर्शाती है कि बहुत समय तक सिसोदिया राजपूत समुदाय, मीरा की हर याद दबाने की कोशिश कर रहा है. इस हद तक कि लोग उनका नाम पब्लिक में लेने से भी डरते हैं. यह देखते हुए कि सिसोदिया कई जगहों पर प्रमुख जाति थी, पारिता लिखती हैं कि मीरा के बारे में बात करना खतरे से खाली नहीं था.

19वीं शताब्दी में, मीरा के एक निश्चित रूप को मेनस्ट्रीम में स्वीकारने के लिए एक तरह का समझौता किया गया. ऐसी मीरा का जन्म हुआ, जिनकी भक्तिन के रूप में एक परंपरागत इमेज थी. वो मीरा जो परंपराओं को ललकारती थी, उसे पीछे धकेल दिया गया. गांधीजी के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के ज़रिए मीरा की छवि ‘सर्वोपरि सत्याग्रही’ के रूप में उभरी, क्योंकि अपने आंदोलन में गांधीजी ने मीरा को यही कहकर संबोधित किया. वो सत्याग्रही जिसने अपने पति को छोड़ दिया और निष्काम प्रेम की ज़िंदगी जी. आखिर में उनके पति भी उनके भक्त बन गए.

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