परीक्षित के पुत्र ने तक्षक नाग से बदला कैसे लिया? जानिए

परीक्षत का पुत्र जन्मजेय था जो कि अभिमन्यु का पौत्र था. अभिमन्यु चक्रव्यूह मे महाभारत के तेरहवे दिन के युद्ध मे सात कोरवा महारथियों द्वारा अन्यायपूर्ण रूप से मार दिया गया था. उस समय परीक्षत अभिमन्यु कि पत्नी उत्तरा के गर्भ मे था. महाभारत युद्ध कि समस्पति पर अश्वत्थामा ने उत्तरा के गर्भ पर दिव्यास्त्र से प्रहर किया था तब परीक्षत कि रक्षा श्रीकृष्ण ने कि थी और उसे सकुशल पैदा करवाकर जीवन दिनया था जबकि परीक्षत क्षत विक्षत रूप मे जन्मा था.

राजा परीक्षत कलयुग के आगमन के समय भारत वर्ष के राजा बने थे और कलयुग आगमन समझ कृष्ण के महानिर्वाण के बाद पांडवों ने भी कृष्ण जी कि सलाह अनुसार इस मर्त्यलोक से गमन हि उचित समझा था. इस पर्व कोहाभारत मे स्वर्गारोहण कहा गया है. कृष्ण जी गुजरात पाटन के भल्लिका तीर्थ से स्वर्ग चले गयी थे. इससे पहले सभी यादव बहादुर आपस मे मोसल पर्व मे लड़कर समाप्त हो गए थे. अर्जुन को कृष्ण जी ने द्वारिका बुलाया और गोपियों कि सुरक्षा कि जिम्मेवारी सौंपकर जरा नामक वधिक से वान से पैर के पद्म मे आहत होकर स्वर्गलोक वैकुण्ठ चले गए.

अब अर्जुन कृष्ण जी कि सलाह के अनुसार द्वारिका से गोपिकाओं को लेकर बृंदावन आये और रास्ते मे उनको भीलों ने लूट लिया. उनकी लाख प्रयास के बाद भी अर्जुन गोपियों को नहि बचा पाए और युद्ध हार गए अपनी जान बचाकर लौटे. अर्जुन कि यह हालत समझकर पांडवों ने कलयुग आगमन जानकर अपनी मान मर्यादा कि रक्षा हेतु और आने वाले पापों से बचने हेतु , धर्म क्षय को न रोक पाने और जनता मे फैली अव्यवस्था, वेवा औरतों कि चीख पुकार, महाभारत युद्ध के बाद के दुसप्रभावों से घबराकर सभी पांचों पांडव स्वर्गारोहण को चले वेद व्यास से आज्ञा लेकर द्रोपदी के साथ. इस त्रह उन्होंने परीक्षत को हस्तिनापुर का राजा बनाया और युयुत्सु को इन्द्रप्रसत्त का राज्य दिया. परीक्षत एक धर्मज्ञ सुसंस्कृत ज्ञानी योग्य धर्मभीरु उत्तराधिकारी था.

पांडवों के जाने के बाद और हिमालय मे सदेह स्वर्ग युधिष्ठिर के पहुँचने पर धर्म परीक्षा मे उत्तीर्ण होने पर तथा स्वर्ग मे सभी सुख भोगने पर पांडव अध्याय समाप्त होता है और शुरू होता है परीक्षत का राज्य. परीक्षत का विवाह राजा वासुकी नाग क़ी पुत्री नाग कन्या से हुआ जिससे पुत्र हुआ जन्मजेय. राजा परीक्षत ने अच्छा राज्य किया राजा प्रजा ऋषि मुनि जनगल नगर सब सम्पन्न थे. यज्ञ खूब होते ठे. राजा ने लम्वे समय तक राज्य किया. अब कलयुग ने अपना प्रताप दिखाया और कलयुग एक वधिक का रूप रखकर एक एक पैर पर ख़डी गाय को डंडे से मारने लगा. राजा ने गाय कि रक्षा कि. गाय के तीन पैर टूटे होने का अर्थ था कि कलयुग मे सत्य मात्र एक चौथाई रह जाता है और तीन भाग झूठ का होता है. अब तीन भाग झूठ से एक भाग सच कैसे जीतेगा. असहाय ही रहेगा. कपट छल धोखा झूठ का बोलवाला हो गया और सत्य का क्षय फिखने लगा.

कलयुग ने राजा को बहकस्या और राजा से अपने लिए रहने कि जगह परीक्षत के राज्य मे मांगी. राजा ने कलयुग को जुयाघर , वेश्यालय, मदिरालय, स्वर्ण जो मेहनत से न कमाया गया हो आदि मे कलयुग को स्थान दिया. राजा के सिर पर स्वर्ण मुकुट होता ही है, परीक्षत के सिर पर भी था. जिसे महाराज युधिष्ठिर ने जरासंध से जिता था. यह मुकुट बीणा परिश्रम के ही पांडवों ने जरासंध से प्राप्त किया था. अतः अब इस राज मुकुट स्वर्ण में ही कलयुग बैठ गया. बस यही से कलयुग ने राजा परीक्षत कि बुद्धि पर अपना दुष्प्रभाव फैलाया और राजा कि बुद्धि भ्रमित हो गयी. राजा का बुरा समय शुरू हो गया. राजा कलयुग के प्रभाव मे आ गया.

राजा परीक्षत शिकार से जंगल से लोटा. रास्ते मे एक ऋषि पूजा ध्यान मे मग्न थे. राजा को एक मरा हुआ सांप रास्ते मे दिखा. राजा ने इस सांप को, आराधना मे व्यस्त ऋषि के गले मे अनायास ही फेंक दिया. यह घटना ऋषिपुत्र ने देखि और राजा को इस मरे सांप से ही काटने का श्राप दे दिया. राजा को गलती का अहसास हिया और प्रायश्चित शुरू किया लेकिन श्राप तो लग चूका था और राजा को बचाने का उपाय किया गया. शुकदेव जी जो स्वयं वेद व्यास के पुत्र थे और श्रीकृष्ण जी के बहुत बडे भक्त थे, ने श्रीमद्भगवद पुराण का पाठ कहना शुरू किया. शुक्रताल मुजफ्फरनगर मे गंगा किनारे पाठ किया गया. बहुत ऋषि मुनि आये. राजा सभी तरह के मंत्रों से सुरक्षित हो गया. परन्तु फिर भी एक सांप ने छिपकर राजा के महल मे फूलों कि डोली मे घुसकर प्रवेश कर राजा को कट लिया और राजा सर्पदंश से मर गया. राजा को बचाने कि कोशिश वैद्य धनवंतरी ने कि. यह अपने समय के माहिर वैद्य थे आयुर्वेद के ज्ञाता थे. जहर को कम करने का प्रयास किया. इसी प्रयास मे परीक्षत का शव बहता हुआ गंगा मे चला और उसमे से ही धन्वंतरि के कुछ शिष्य बंगाल तक शव के पिछे गए और कला जफू मेंप्रवीण हो गए परन्तु राजा न बचाया जा साका. यहां से हिं पांडव और वासुकि मे वैमनस्य बढ़ गया क्योंकि इस सर्प को वडुकी का ही षणयंत्र माना गया.

राजा परीक्षत के मर जाने का बदला उनकीबपुत्र जन्मन्जय ने वासुकि और तक्षक नाग से लिया. ऋषि मुनियों कि सहायता से जन्मजेय ने सर्प यज्ञ किया और देवराज इंद्र जो कि वासुकि का मित्र था तथा पांडवों का भी पूर्वज था, कि सहायता के बाद भी बहित बडे प्रयत्न से ही वसुकी, तक्षक आदि नागों को राजा जन्मजेय के कतोड़ से कोप से बचाया जा सका. जन्मजेय ने सभी नाग भष्म कर दिये. यज्ञ मे सभी नागलोक तक के नाग पकडकर यज्ञस्थल लाये गए. उनको ऋषि मुनियों कि उपस्थिति मे यज्ञ मे भष्म किया किया गया. तक्षक ने इंद्र से प्रार्थना कर अपनी जान वचाई. इसमें कुछ ऋषियों ने भी जन्मजेय महाराज को तक्षक नाग को माफ करने के लिए सहमत करा लिया. तब ही जन्मजेय मेहाराज ने राजा परीक्षत का बदला लिया और अधिकतर नागों का अंत कर फिया. जन्मजेय के बाद भी पांडव ही हसटिनापुर से राज्य करते रहे. जन्मजेय ने साठ वरस और परीक्षत ने 36 वर्ष राज्य किया था. महाभारत मे सर्पयग भी एक अध्याय है.

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