धरती पर वैकुण्ठ का 100 कोस का टुकड़ा है ये क्षेत्र, जाने श्री कृष्ण का अद्भुद संसार
ऊपर दिखाई दे रही तस्वीर देख शायद आपको लग रहा हो की ये कंही विदेश का कोई पर्वत है लेकिन असल में ये भारत का ही एक रमणीय पर्वत और श्रृंखला है. गिरनार पर्वत श्रृंखला गुजरात के जूनागढ़ में स्तिथ है वंही पर है ये पर्वत जो की शाश्त्रो में रेवतक पर्वत के नाम से विख्यात है.
ये रेवतक पर्वत राजा रेवत का पुत्र था जिनकी की पुत्री रेवती जी बलराम जी को ब्याही गई थी, ऐसे ये बलराम जी का ससुराल भी था. इस पर्वत पर हिन्दू धर्म ही नहीं बल्कि दत्तात्रेय जी के चलते जैन धर्म की भी काफी आस्था है और इसकी भी परिक्रमा यात्रा का आयोजन यंहा हर साल होता है.
लेकिन इतना महत्त्व इस पर्वत को क्यों दिया जाता है ये क्या आपने सोचा है? असल में ये पर्वत और इसके अलावा 100 कोस तक की भूमि बड़ी पवित्र है. ऐसी मान्यता है की ये स्थान वैकुण्ठ का ही 100 कोस का टुकड़ा है जैसे वृन्दावन का 84 कोस गोलोक का है और काशी शिव लोक का ही टुकड़ा है वैसे ही ये क्षेत्र भी पवित्र है.
जाने और विस्तार से इस तीर्थ को….
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जी हाँ ये कंही और नहीं बल्कि श्री कृष्ण की नगरी द्वारिका का ही अंग है और इसलिए यंहा आकर बसे थे श्री कृष्ण, इस 100 कोस के क्षेत्र में प्रभास क्षेत्र और गिरनार पर्वत श्रृंखला, बेत द्वारका और द्वारिका आदि आदि सम्मिलित है और इस स्थान के कण कण में भगवान् विष्णु का वास है.
ये क्षेत्र धरती पर है लेकिन धरती का अंग नहीं है, आवर्त नाम के एक राजा कृष्ण भक्त थे! पिता ने एक बार अपनी सम्पति (धरती के राजा थे) का बंटवारा तीनो पुत्रो में बराबर किया और कहा की ये मेरा है जो में तुम्हे दे रहा हु तो पुत्र ने कहा की ये तो सब कृष्ण का है और वो ही इसका पोषण करते है.
ऐसे में पिता ने उसे दुत्कारा और कहा की मेरे राज्य से निकल जा और कृष्ण से ही अपना राज्य मांग….
तब राजा आवर्त ने 10000 साल तपस्या से श्री कृष्ण को प्रसन्न किया और अपने लिए कोई स्थान माँगा, तब श्री कृष्ण ने उसके लिए वैकुण्ठ से 100 कोस भूमि लाइ और सुदर्शन चक्र के सहारे उस भूमि को जलमग्न होने से रोक कर रखा. ऐसे द्वारका पूरी का धरती पर आगमन हुआ और आज भी वो विधमान है.
उस राजा की भक्ति से ही द्रवित हो कृष्ण के आंसू निकले जिससे गोमती नहीं का प्राकट्य हुआ और यंहा जो सिंधु गोमती का संगम है वो भी एक तीर्थ है. ऐसे ही सुदर्शन के लिए चक्र तीर्थ भी वंहा मौजूद है, द्वारका के नाम लेने छूने से भी कल्याण हो जाता है तो भ्रमण कर के आये तो कहना ही क्या.