क्या मानव मृत्यु के बाद से फिर जन्म लेता है? जानिए

सनातन धर्म में पुनर्जन्म की दृढ़ मान्यता है। लेकिन, मानव ही मरकर पुनः जन्म लेता है, ऐसी बात नहीं है। समस्त जीव मरने के उपरांत पुनः शरीर धारण करता है। मानव मरकर पुनः मानव ही बनेगा या पशु मरकर पुनः पशु बनेगा, ऐसी भी बात नहीं है। कर्म से भाग्य बनता है और भाग्य से ही अगला शरीर निर्धारित होता है। यह जन्म मरण का क्रम तब तक चलता रहता है जब तक कि जीव को मुक्ति नहीं मिल जाती।

गीता अ०४, श्लोक ५ में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है- बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥

– हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं; उन सबको मैं जानता हूँ, किंतु हे परंतप ! तू (उन्हें) नहीं जानता।

अ० २/२२ में भगवान कहते हैं- वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है ।

अब देखें भगवान श्रीराम ने रामचरितमानस मे क्या कहा-आकर चारि लक्ष चौरासी। योनि भ्रमत यह जिव अविनासी।। अर्थात् चार खानियों में चौरासी लाख प्रकार की योनियाँ हैं। यह अविनाशी जीव उनमें काल, कर्म और स्वभाव के घेरे में रहकर सदा भटकता रहता है।

अब कुछ संतवाणियों पर दृष्टिपात करें। संत कबीर साहब कहते हैं- लख चौरासी भरमि के पौ पर अटके आय। अबकी पासा ना परै फिर चौरासी जाय।।

चरणदासजी शिष्या सहजोबाई कहती हैं- चौरासी भुगती घनी, बहुत सही जम मार। भ्रमत फिरै तिहु लोक में तऊ न मानी हार।

राधास्वामी साहब की वाणी है- यह तन दुर्लभ तुमने पाया। कोटि जनम भटका जब खाया।।

अंत में योगशिखोपनिषद् का उद्घोष भी देखें- देहावसानसमये चित्ते यद्यद्विभावयेत्‌।
तत्तदेव भवेज्जीव इत्येवं जन्मकारणम्‌॥ ३१॥ अर्थात् मरने के समय जीव जो जो भावनाएँ करता है, वही वही वह होता है और यही जन्म का कारण है।

संतों, भगवन्तों एवं शास्त्रों की वाणी से पुनर्जन्म सिद्धांत की परिपुष्टि होती है।

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