कुंभ मेला क्या है? जानिए इसके बारे में

कुंभ मेला न सिर्फ भारत अपितु समस्त विश्व में होने में वाला सर्वाधिक प्राचीन और अत्यंत विशाल संत समागम है जिसमें देश और विदेश से असंख्य संख्या में श्रद्धालु बिना किसी निमंत्रण के एकत्रित होते है। सभी श्रद्धालु नदियों में स्नान कर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते है।
भारत में कुंभ मेला तीन वर्ष के अन्तराल पर चार प्रमुख स्थानों हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन पर लगता है।
यह मेला विविधता में एकता की भावना को प्रदर्शित करता है।
देश के सभी प्रांतों से विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों मिलकर कुंभ के इस महोत्सव को हर्षोल्लास के साथ मनाते है।
संत और महात्माओ की उपस्थिति से इस पर्व का महत्व और बढ जाता है इनके अद्भुत स्वरूप इस मेले का केन्द्र बिन्दु होते है।

कुंभ के आयोजन को लेकर अनेक मान्यताए है लेकिन सबसे प्राचीन मान्यता जो पुराणों में वर्णित है
विष्णु पुराण की एक कथा के अनुसार एक बार देवराज इन्द्र अपनी किसी यात्रा से बैकुंठ लोक वापस लौट रहे थे और उसी समय दुर्वासा ऋषि बैकुंठ लोक से बाहर जा रहे थे. दुर्वासा ऋषि ने ऐरावत हाथी में बैठे इन्द्रदेव को देखा तो उन्हें भ्रम हुआ कि हाथी में बैठा व्यक्ति त्रिलोकपति भगवान् विष्णु हैं. अपने इस भ्रम को सही समझ कर दुर्वासा ऋषि ने इन्द्र को फूलों की एक माला भेंट की लेकिन अपने मद और वैभव में डूबे देवराज इन्द्र वह माला अपने हाथी ऐरावत के सिर पर फेंक दी और ऐरावत हाथी ने भी अपना सिर झटक कर उस माला को ज़मीन पर गिरा दिया जिससे वह माला ऐरावत के पैरों तले कुचल गयी.

दुर्वासा ऋषि ने जब इन्द्र की इस हरकत को यह देखा तो क्रोधित हो गए. उन्होंने ने इन्द्र द्वारा किये गए इस व्यवहार से खुद का अपमान तो समझा ही साथ ही इसे देवी लक्ष्मी का भी अपमान समझा.

इन्द्र द्वारा किये गए इस अपमान के बाद दुर्वासा ऋषि ने इन्द्र की श्रीहीन होने का श्राप दे डाला. ऋषि द्वारा दिए गए श्राप के कुछ ही समय बाद इन्द्र का सारा वैभव समुद्र में गिर गया और दैत्यों से युद्ध हारने पर उनका स्वर्ग से अधिकार छीन लिया गया.

अपनी इस दशा से परेशान होकर सभी देवता इंद्रदेव के साथ भगवान् विष्णु के पास पहुचे और इस समस्या का समाधान पूछा. तब भगवान् ने देवताओं को समुद्र मंथन कर स्वर्ग का सम्पूर्ण वैभव वापस पाने और मंथन से निकलने वाले अमृत का उपभोग करने का रास्ता सुझाया.

देवताओं को भगवान् विष्णु द्वारा सुझाया गया यह मार्ग स्वीकार था लेकिन इस समाधान में कई दिक्कत कि इतने विशाल समुद्र को मथा कैसे जाए इसके लिए इतनी बड़ी मथनी और रस्सी कहाँ से लायी जाय तब भगवान विष्णु की सलाह पर मंदराचल पर्वत को मथनी तथा नागराज वासुकी को रस्सी की तरह इस्तेमाल किया जायेगा यह तय हुआ अब समस्या यह थी कि समुद्र मंथन अकेले देवताओं के बस की बात नहीं थी उन्हें इसमें दैत्यों को भी शामिल करना आवश्यक था. देवता नारायण की इस बात के लिए राजी हो गए और उन्होंने दानवो के साथ मिल कर समुद्र मंथन किया.

समुद्र मंथन से अमृत के अलावा धन्वन्तरी, कल्पवृक्ष, कौस्तुभ मणि, दिव्य शंख, वारुणी या मदिरा, पारिजात वृक्ष, चंद्रमा, अप्सराएं, उचौ:श्राव अश्व, हलाहल या विष और कामधेनु गाय भी प्राप्त हुई थी.
अमृत को लेकर दैत्यों और देवताओं में युद्ध प्रारम्भ हो गया तो देवता अमृत को लेकर भागे और अमृत इन्ही चार प्रमुख स्थानो छलक कर गिर गया अंत में भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर दैत्यों और दानवों के पास और आपसी सहमति से अमृत को बांटने की जिम्मेदारी ली इस दौरान अप्सराओं के नृत्य के मध्य मंथन से प्राप्त सभी वस्तुओ के वितरण की प्रक्रिया आंरभ की गयी और दैत्य भगवान् के मोहिनी रूप पर मोहित थे और भगवान ने इसका भरपूर उपयोग किया और मंथन से प्राप्त मंदीरा दैत्यों को खूब पिलाई जिससे से और भी बेसुध हो गये और भगवान विष्णु ने अमृत सहित सभी मूल्यवान देवताओं के हिस्से में बाँट दी

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