काली मौत किसे कहा जाता है? और इसमें क्या होता है? जानिए

एक रात में कई लोगों की जिंदगी जीते देखा होगा, पर क्या कभी एक रात में लोगों को एक के बाद एक दम तोड़ते देखा है! यह कल्पना ही कितनी भयानक लगती है, जो लाशों और चीखों से भारी हो.

किन्तु, दुनिया के इतिहास में ऐसी कई काली रातें दर्ज हैं, जो मौत के नाम हो गईं.

वह ‘काली मौत’ थी, जो बार-बार आई, और जब भी आई अपने साथ लाखों जानें ले गई. क्या बच्चे क्या बूढे और क्या जवान…जिसने भी दिन का सूरज देखा, वो रात का चांद देखने से पहले ही दुनिया से अलविदा कर ​गया.

इतिहास में उस भयावह घटना को ‘ब्लैक डेथ’ का नाम दिया गया, जिसने देखते ही देखते यूरोप की आधी आबादी को मौत की नींद सुला दिया और फिर एशिया और अफ्रीका में अपना कहर बरपाते हुए अचानक खत्म हो गई.शुक्र है कि हमनें वो दौर नहीं देखा!

इंसानी तारीख में महामारी का इतिहास बहुत स्याह और भयानक है. जिस तरह की तबाही आज कोरोना ने चीन में ढाई है, इससे कहीं ज्यादा खौफनाक तबाही 19वीं सदी में चीन में देखने को मिली थी प्लेग की शक्ल में. 1860 के दशक में प्लेग की वजह से अकेले चीन में करीब 25 लाख लोगों की मौत हो गई थी. ये वही प्लेग था, जिसने चीन के बाद भारत का रुख किया और भारत में भी भयंकर तबाही मचाई. एक आंकड़े के मुताबिक उस दौर में भारत में प्लेग से करीब एक करोड़ से ज़्यादा लोगों की जान चली गई थी.

चीन के वुहान से निकला ये वायरस दुनिया में एक और तबाही की वजह बन चुका है. मगर ऐसा ना हो कि इससे मरने वालों का आंकड़ा उस आंकड़े को भी पार कर जाए जो इंसानी तारीख में सबसे ज़्यादा मौतों का है. ये सवाल इसलिए क्योंकि 690 साल पहले 14वीं सदी में चीन के चूहों से फैले प्लेग ने यूरोप में जिस तरह का तांडव मचाया था. उसके बारे में जानकर आज भी ही रूह कांप जाती है.

मानव इतिहास में किसी दूसरे वायरस या बग ने उतनी तेज़ी से इंसानी आबादी का सफाया नहीं किया, जितना ब्लैक डेथ ने किया. 14वीं सदी में यूरोप में प्लेग से होने वाली मौतों को ब्लैक डेथ यानी काली मौत कहा गया. चीन से यूरोप आई इस महामारी से 1347 से 1351 तक यानी चार सालों में यूरोप की करीब 2 से 3 करोड़ आबादी खत्म हो गई थी.

दरअसल, इस दौर में प्लेग का संक्रमण इतनी तेज़ी से फैला कि लोगों को वक्त पर इलाज कराने का मौका तक नहीं मिला. और सही वक्त पर इलाज न होने की वजह से कुछ ही दिनों में लाखों मरीज़ों की मौत होनी शुरू हो गई. इसका इन्फेक्शन सीधे लोगों के लंग्स में पहुंच रहा था. उन मरीज़ों के कफ के जरिए हवा में. ठीक वैसे ही जैसे आज कोरोना वायरस का संक्रमण बेहद तेजी से फैल रहा है. मगर आज तो फिर भी लोगों को पता है कि कोरोना उन्हें मार सकता है. लेकिन तब तो लोग अनजाने में ही प्लेग का शिकार होते गए और जान गंवाते गए.

सदियों बाद ये प्लेग उस हद तक खतरनाक स्तर पर पहुंच गया था, जिसका अंदाज़ा भी नहीं लगाया जा सकता. 19वीं सदी में चीन और भारत में इसी प्लेग ने महामारी का रूप ले लिया था. तब भी प्लेग के फैलने की शुरुआत चीन से ही हुई थी.

1860 के दशक में प्लेग ने सबसे पहले चीन के अंदरूनी इलाकों में हमला बोला और फिर हांगकांग में दाखिल हुआ. उस दौर में इस महामारी को मॉडर्न प्लेग का नाम दिया गया. चीन के सिल्क रूट के रास्ते ये दुनिया के बाकी हिस्सों में फैल गई थी. संक्रमित चूहे प्लेग की बीमारी लेकर शिप तक पहुंचे और जहां-जहां भी शिप गए और डॉक्स पर रुके. ये बीमारी भी वहां चली गई. चीन से ही ये बीमारी भारत में फैली. भारत में इसकी शुरुआत 1889 में हुई. यहां इसने चीन से भी ज्यादा कहर बरपाया था.

उस खौफनाक महामारी के दौरान प्लेग से चीन और भारत में मिलाकर सवा करोड़ से ज्यादा लोगों की जान चली गई थी. यूके की डिफेंस इवेल्युएशन एंड रिसर्च एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक अकेले भारत में ही प्लेग से 1 करोड़ लोगों की मौत हुई थी. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के मुताबिक, प्लेग के वायरस 1959 तक एक्टिव रहे थे. हालांकि, इसके चलते होने वाली मौत के आंकड़े में लगातार गिरावट जारी रही. आखिरी के साल में गिरकर मौतों का आंकड़ा प्रति वर्ष 200 हो गया था. भारत में प्लेग की एंट्री पोर्ट सिटी हांगकांग के जरिए ब्रिटिश इंडिया में हुई थी. तब इसका असर सबसे ज्यादा मुंबई, पुणे, कोलकाता और कराची जैसी पोर्ट सिटी में ही दिखा था. यहां कई समुदाय तो पूरी तरह खत्म हो गए थे.

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