राणा प्रताप कहाँ के राजा थे और वे जंगल में क्यों रहने लगे थे?
यह सिर्फ राणा नहीं महाराणा थे, ये योद्धा प्रताप प्रतापी थे।
यह भोग विलास अभिलाषी नहीं, मातृभूमि के पुजारी थे।।
महाराणा प्रताप (उदयपुर)
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई, 1540 को कुम्भलगढ़ दुर्ग, राजस्थान में माँ जयवंता बाई की कोख से महाराणा उदय सिंह के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में हुआ। यह महाराणा उदय सिंह के ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण राजगद्दी के उत्तराधिकारी थे, लेकिन विधि का विधान कुछ अलग था इसलिए इनका लालन-पालन दुर्ग में नहीं दूर दराज के इलाक़ों मे हुआ।[1]
प्रताप का बाल्यकाल
प्रताप के जन्म से ही उनकी सौतेली माँ रानी धीरबाई भटियानी उदयसिंह को अपने गिरफ्त में ले लिया और जयवंता बाई के खिलाफ साजिश शुरू हो गई। जयवंता बाई बालक प्रताप को लेकर चित्तौड़ दुर्ग से नीचे बनी हवेली में रहने लगीं। यहीं से शुरू हुआ मां के संस्काराें का बीजारोपण। प्रशासनिक कुशल मां ने प्रताप को अपने जांबाज बनाया और शूरवीरता के गुण दिए।[2]
इस बात को बहुत ही कम लोग जानते हैं कि प्रताप 3 साल की उम्र से ही दुर्ग में नहीं जंगल में रहे। जंग उनकी माँ गोगून्दा में रहने लगी और वही प्रताप का लालन-पालन हुआ।
जंगल से सीखी जंग
प्रताप की माँ जब दुर्ग को छोड़कर निचले हिस्से में चली गई, तब प्रताप दुर्ग के बाहर माँ के सानिध्य में युद्ध कला सीखी। यहाँ रहते हुए उन्होंने आदिवासी भील जाती से गहरी मित्रता कायम कर ली और यहीं वो युद्ध कला सीखी जो अकबर की सोच में भी नहीं हुआ करती थी। आदिवासी भील प्रताप के लिये जान पर पूरी जिंदगी खेलते रहे और उनको हौसलों को उड़ान देते रहे। जब हल्दी घाटी का युद्ध लड़ने प्रताप की सेना मैदान में उतरी तो प्रताप की सेना में भील धनुषबाण लेकर मुकाबले को तैयार हुये तब अकबर की सेना मैदान छोड़ भाग खड़ी हुई, 5 किलोमिटर तक भागने के बाद वापस मैदान में आई।[3]
जंगल में क्यों रहे
जन्म से ही जंगल में ही रहे, दुर्ग का साथ इनके लिए महज 3 वर्ष रहा।
1572 में उदयपुर (मेवाड़) राज्य के महाराणा के रूप में राजतिलक होने के बाद प्रताप कुम्भलगढ़ दुर्ग की बजाय गोगून्दा में ही रहे।
हल्दी घाटी युद्ध के पश्चात् अपनी युद्व कला के कारण इन्होंने जंगलों में रहना ही स्वीकार किया ताकि अपनी मनपसंद छापेमार गोरिल्ला कला से अकबर की विशाल सेना का सामना पहाड़ों और जंगलों से कर सके।
1582 के दिवेर युद्द में विस्तृत भाग जीत लेने के उपरांत भी इन्होने जंगलों में रहना स्वीकार किया, इस युद्ध में अकबर का सेनापति प्रताप के एक ही वार से घोड़े समेत धराशायी हो गया था।
इनकी मृत्यु 1597 मे हल्दी घाटी के निकट चावंड गाँव में हुई, जहां भी कोई किला नहीं है।
प्रताप दुर्ग भोग विलास को नहीं, मातृ भूमि के लिये जन्मे उन्हें दुर्ग से कोई प्रेम नहीं था, उनका प्रेम कुछ और (स्वाभिमान) ही था। अगर उनको महल में रहना होता तो अकबर से कभी भी मिलकर समान्य जीवन बिता सकते थे, पर उनको अकबर को झुकाना था, जो जंगल और पहाड़ों से ही झुका सकते थे, इसलिए कुदरत ने उनकी समझ से ही उनको महलों से निष्कासित कर मातृ भूमि की गोद में भेज दिया ताकि वो निपुण हो जाए, और उन्होंने जीवन के अंतिम पल तक कुदरत के फैसले का पालन किया।