यह है भारत के इतिहास की सबसे अंतिम सती, जानिए इनके बारे में रोचक बातें

प्राचीन काल में भारत में अनेक तरह की प्रथाएं प्रचलित थी उस समय समाज में अनेक तरह की कुरीतियां थी सती प्रथा उस समय  बहुत प्रचलित हुआ करती थी इसमें अगर किसी हिंदू स्त्री के पति की मृत्यु हो जाती थी तो उस स्त्री को भी उसके पति के साथ जीवित अग्नि में समाविष्ट हो जाना पड़ता था इतिहास में कई जगहों पर हमें इन स्त्रियों के देवी होने का प्रमाण भी मिलता है लेकिन उस समय हर श्री को इसी तरह समाज का दबाव देकर अग्नी मे प्रज्वलित कर दिया जाता था यही थी सती प्रथा.

आजादी के बाद से ही  कई लोगों ने इस कुप्रथा के ऊपर कानून बनाने की वकालत की लेकिन उस वक्त भारत देश अलग-अलग रियासतों में बंटा हुआ था इस कारण सभी रियासतों की सहमति एक साथ नहीं बन पाई लेकिन धीरे-धीरे सभी लोगों ने इसके विरोध में कानून बना दिए लेकिन राजस्थान के मेवाड़ की रूप कंवर भारत की सबसे अंतिम सती के रूप में इतिहास में दर्ज है सन 1969 को राजपूत कुल में रूप कंवर का जन्म हुआ था उनका विवाह जनवरी 1987 में सीकर जिले के देवरला गांव के माल सिंह शेखावत के साथ हुआ था लेकिन विवाह के केवल 8 माह बाद ही  रूप कंवर के पति माल सिंह शेखावत की मृत्यु हो गई और 4 सितंबर 1987 का दिन इतिहास में अमर हो गया क्योंकि इसी दिन रूप कंवर अपने पति की मृत्यु शैया पर स्वयं को भी अग्नि में समर्पित करके सती हो गई यह मामला भारत के इतिहास की सबसे अंतिम सती माता (last sati) के रूप में दर्ज है

19 वी सदी के मध्य में सती प्रथा के रोकथाम के लिए कई प्रयास किए गए लेकिन कई धार्मिक समुदायों ने इसका विरोध किया लेकिन धीरे-धीरे कई रियासतों ने इसे लागू कर दिया 1846 में राजपूताना की 11 रियासतों ने इसके लिए कानून बना दिया 1861 में मेवाड़ में भी कहीं विरोध के बाद इसे लागू कर दिया गया.

इसके रोकथाम के लिए 1 अक्टूबर  1987 के दिन सती प्रिवेंशन एक्ट को और सख्ती से लागू कर दिया गया  जिसके अंतर्गत किसी महिला को सती होने के लिए उकसाने पर इसके लिए कठोर सजा का प्रावधान है  तथा सती होने वाली महिला का मंदिर बनाने या उस के उपलक्ष में धार्मिक आयोजन करने पर भी कठोर सजा का प्रावधान है

1987 में रूप कंवर के सती होने की घटना को सरकार ने एक अपराध माना और प्रशासन ने कई लोगों के खिलाफ मामला दर्ज करके उनको हिरासत में भी ले लिया था जिनको बाद में सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया.

लेकिन अगर देवरला के लोगों की बात माने तो इसका एक अलग ही पहलू सामने आता है वहां के रहवासियों का मानना है कि रूप कंवर ने  सती होने का निर्णय स्वयं ही लिया था क्योंकि वह अपने पति से अगाढ प्रेम करती थी उनका यह निर्णय किसी बहकावे में या उकसावे में लिया हुआ नहीं था

देवरला के निवासी बताते हैं कि उनके पति की मृत्यु के बाद रूप कंवर ने सतत गायत्री मंत्र का मंत्र उच्चारण शुरू कर दिया फिर उन्होंने सोलह सिणगार किये और हजारों ग्राम वासियों ने उनकी शोभा यात्रा निकाली एवं अंत में वह शमशान में मृत्यु शैया पर लेटे अपने पति के सर को अपने गोद में रखकर सती हो गई ग्रामवासी बताते हैं कि चिता पर अग्नि के प्रज्वलित होने के बाद भी उनका मंत्रोच्चार जारी था तथा उनका एक हाथ ऊपर था जो ग्राम वासियों को आशीर्वाद दे रहा था और उनके मुख से एक चीख तक नहीं निकली।

उनके परिवार के ही सदस्य आनंद सिंह बताते हैं कि हजारों लोग वहां पर उस देवी के सम्मान में तलवारों के साथ खड़े थे देवरला के लोग रूप कंवर को चित्तौड़गढ़ की महारानी पद्मावती की तरह पूजते हैं

उनके परिवार के सदस्य इसे प्रथा कहने पर विरोध करते हैं उनका कहना है कि जब यह घटना हुई उस वक्त गांव में 40-50 औरतें विधवा थी अगर यह प्रथा होती तो वे जीवित नहीं होती इस कारण यह कोई प्रथा के हिसाब से नहीं हुआ था

उनके घर में उनके कमरे को एक पवित्र स्थान की तरह रखा हुआ है तथा देवरला गांव के लोग भी  रूप कंवर को सती माता की तरह पूछते हैं उनके घरों के मंदिर में भी सती माता के फोटो है.

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