मनुष्य पर जन्म से ही तीन ऋण होते हैं,जिसे हर किसी को पूरा करना होता है
भारतीय सनातन धर्म के अनुसार जब व्यक्ति इस संसार में पैदा- होता है तब वह तीन प्रकार के ऋण अर्थात ऐसे कर्म जो अपने- जीवन में करने होते हैं उनके साथ उत्पन्न होता है अगर वह इन- तीन कर्मों को नहीं करता है तब उसे जीवन में विभिन्न प्रकारकी परेशानियों का सामना करना पड़ता है वह तीन प्रकार के ऋण– देव ऋण ऋषि ऋण और पित्र ऋण है.
देव ऋण:
दुनिया में जिंदा रहने के लिए वायु अग्नि जल पृथ्वी आकाश इन पांच तत्वों की आवश्यकता होती है इसलिए यह सब देवताओं– की कृपा से प्राप्त होते हैं इसलिए हम देवताओं के प्रतिदिव्यकर्म जैसे कि पूजन करना पाठ करना हवन करना ऐसी क्रिया कर के देवताओं का अपने ऊपर आशीष बनाए रखने के लिए यह सब- कर्म करने पड़ते हैं अगर हम यह कर्म नहीं करेंगे तो देव ऋण सेेेे मुक्त नहीं हो सकते.
ऋषि ऋण:
यहां ऋषि ओं से तात्पर्य पृथ्वी के उन प्रथम मानव से है जिन के द्वारा दुनिया में जीवन स्थापित किया गया और उन्हीं से पैदा हुए हम सभी लोग उन के ज्ञान और कर्म के प्रति उत्तरदाई है इसको हम इस प्रकार भी कह सकते हैं जिन लोगों के ज्ञान की वजहसे दुनिया विकास करते हुए यहां तक पहुंची है उन सब का हमारेेे–ऊपर ऋण है इसलिए इस दुनिया की हमारे पूर्वज के प्रतिहमारा आभार करना आवश्यक है और इस ऋण से मुक्ति के लिए हमें- भी उनकी भांति दुनिया के विकास में सहयोग करना चाहिए.
पित्र ऋण:
पित्र ऋण का संबंध हमारे परिवार के पूर्वजों से जिनके अंश को लेकर हम उत्पन्न हुए हैं अर्थात हमारे दादा परदादा नानापरनाना यह सभी लोग पीढ़ी दर पीढ़ी बच्चों को दुनिया में लाते रहे हैं—- जिस की सब से उन्नत और नई पीढ़ी हम लोग उन सभी पूर्वजों- के प्रति हमारा एक कर्तव्य होता है जिस को हम हर साल गणेश विसर्जन के बाद 15 दिन का एक ऐसा समय होता है उसे पित्र– पक्ष कहते हैं इन दिनों में हम अपने इस दुनिया से जा चुकेबुजुर्ग याफिर हमारे पित्र उनको आभार स्वरूप कुछ कर्म करते हैंजिसे श्राद्ध या फिर पितरों को जल देना कहते हैं इस कर्म को करनेसे हम इस ऋण से मुक्त हो जाते हैं.