मदालसा कौन थीं और उनकी कहानी क्या है?

मदालसा का परिचय

राजकुमारी मदालसा एक पौराणिक चरित्र है, जिसका उल्लेख पुराणों में मिलता है। वह गन्धर्वराज विश्वावसु की पुत्री थी। कालांतर में उसका विवाह राजकुमार ऋतुध्वज के साथ हुआ।

राजा ऋतुध्वज एक बार असुरों से युद्ध करने गए। इनकी सेना असुर पक्ष पर भारी पड़ रही थी। ऋतुध्वज की सेना का मनोबल टूट जाये इसलिये मायावी असुरों ने ये अफवाह फैला दी कि ऋतुध्वज मारे गये। यह सूचना रानी मदालसा तक पहुँची तो वह इस गम को सह नहीं कर सकी और उसने अपने प्राण त्याग दिए।

असुरों पर विजय प्राप्तकर जब ऋतुध्वज राजमहल लौटे तो वहां मदालसा को नहीं पाया। मदालसा के वियोग से राजा को बड़ा सदमा लगा और वे राज-काज छोड़कर विक्षिप्तों की तरह व्यवहार करने लगे।

मदालसा का पुनर्जीवन

ऋतुध्वज के प्रिय मित्र नागराज से अपने मित्र की ये अवस्था देखी न गई और वे हिमालय में तपस्या करने चले गए ताकि भगवान शिव को प्रसन्न कर सके। शिव प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा तो नागराज ने उनसे अपने लिए कुछ न मांगकर मित्र ऋतुध्वज के लिये मदालसा को पुनर्जीवित करने की मांग रख दी। शिवजी के वरदान से मदालसा अपनी उसी आयु के साथ मानव-जीवन में लौट आई और पुनः ऋतुध्वज को प्राप्त हुई।

मृत्यु के पश्चात मिले पुनर्जीवन ने मदालसा को मानव शरीर की नश्वरता और जीवन के सार-तत्व का ज्ञान करा दिया। अब वह पहले वाली मदालसा नहीं रही। विषय-भोग में उसकी रूचि समाप्त हो गई और वह आध्यात्मिक चिंतन में मग्न में रहने लगी। पति ने जब संतान प्राप्ति की इच्छा प्रकट की तो मदालसा ने कहा कि मैं संतान नहीं चाहती हूं। पति ने जब इसका कारण पूछा तो मदालसा बोली कि यदि संतान कुसंस्कारी या कुल का कलंक निकल जाए तो मैं उसे नहीं झेल सकती। पति ने कहा–“मैं और तुम दोनों ही धर्म के रास्ते पर चलनेवाले हैं तो हमारी संतान कुसंस्कारी क्यों होगी?” मदालसा ने उत्तर दिया–“कभी-कभी अच्छे मां-बाप की संतान भी बुरी हो जाती है और बुरे मां-बाप की संतान भी अच्छी हो जाती है। यह आवश्यक नहीं है कि अच्छे मां-बाप की संतान अच्छी ही हो।”

संतान प्राप्ति

बड़ी मुश्किल से मदालसा ने संतान उत्पन्न करना स्वीकार किया। पर, पति से वचन ले लिया कि होने वाली संतानों के लालन-पालन का दायित्व उसके ऊपर होगा और पति उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगें।

मदालसा गर्भवती हुई तो वह उपासना में अधिक समय देने लगी। समय पाकर संस्कारी पुत्र हुआ, जिसका पवित्रता के साथ वह लालन-पालन करने लगी। शिशु जब रोता था तो उसे वेदांत ज्ञान से पूर्ण लोरी सुनाते हुए कहती थी– तू शुद्ध है तू बुद्ध है, तू है निरंजन सर्वदा। संसार माया से रहित, तू स्वरूप स्थित सर्वदा।।

पुत्रों का वैराग्य

समय बीतता गया, एक के बाद एक तीन पुत्र हुए– विक्रांत, सुबाहू और शत्रुमर्दन। तीनों पुत्र मदालसा से संस्कारित थे। मदालसा ने उन्हें माया से निर्लिप्त निवृतिमार्ग का साधक बनाया था, इसलिये सबने राजमहल का त्यागकर संन्यास ले लिया। पिता ऋतुध्वज यह सोचकर दु:खी रहने लगे कि हमारा वंश कैसे चलेगा।

एक बार किसी सहेली ने रानी मदालसा से पूछा कि तुम कैसी मां हो, क्या तेरे अंदर ममता नहीं है? तुम कैसे अपने छोटे-छोटे बच्चे को संन्यासी बनाकर जंगल भेज देती हो? मदालसा ने उत्तर दिया–“जो जीव एक बार मेरी कोख में आ गया अगर दोबारा वह किसी दूसरी स्त्री के गंदे कोख में जाए तो यह मेरे जीवन के लिए धिक्कार है। मैं अपनी संतानों को जन्म-मरण रूपी महादुख में नहीं जाने देना चाहती।”

मदालसा फिर से गर्भवती हुई तो पति ने अनुरोध किया कि हमारी सभी संतानें अगर निवृतिमार्ग की पथिक बन गई तो ये विराट राज-पाट को कौन संभालेगा। इसलिये कम से कम इस पुत्र को तो राजकाज की शिक्षा दो। मदालसा ने पति की आज्ञा मान ली। जब चौथा पुत्र पैदा हुआ तो मदालसा ने उसका नाम अलर्क रखा और उसे राजधर्म और क्षत्रियधर्म की शिक्षा दी।

प्रतापी राजा अलर्क

अलर्क माता के दिव्य ज्ञान से संस्कारित होकर सर्वगुणसंपन्न हो गया। उसकी गिनती श्रेष्ठ राजाओं में होने लगी। उन्हें राजकाज की शिक्षा के साथ माँ ने न्याय, करुणा, दान इन सबकी भी शिक्षा दी थी। वाल्मीकि रामायण में आख्यान मिलता है कि एक नेत्रहीन ब्राह्मण राजा अलर्क के पास आया और अलर्क ने उसे अपने दोनों नेत्र दान कर दिये। इस तरह अलर्क विश्व के पहले नेत्रदानी हुए। इस अद्भुत त्याग की शिक्षा अलर्क को माँ मदालसा के संस्कारों से ही मिली थी।

माना जाता है कि बालक क्षत्रिय कुल में जन्मा हो तो ब्रह्मज्ञानी की जगह रणकौशल से युक्त होगा। नाम शूरवीरों जैसे होंगें तो उसी के अनुरूप आचरण करेगा। इन सब स्थापित मान्यताओं को मदालसा ने एक साथ ध्वस्त करते हुए दिखा दिया कि माँ अगर चाहे तो अपने बालक को शूरवीर और शत्रुंजय बना दे और वो अगर चाहे तो उसे धीर-गंभीर, महात्मा, ब्रह्मज्ञानी और तपस्वी बना दे। अपने पुत्र को एक साथ साधक और शासक दोनों गुणों से युक्त करने का दुर्लभ काम केवल माँ का संस्कार कर सकता है।

स्वामी विवेकानंद ने मदालसा के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कहा था, “अगर मेरी कोई संतान होती तो मैं जन्म से ही उसे मदालसा की तरह लोरी सुनाते हुए कहता– शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि। संसार माया परिवर्जितोऽसि। संसार स्वप्नं त्यज मोहनिद्रां।।”

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