भगवान शंकर अपने तन पर जानवर के खाल को क्यों धारण किए रहते हैं?

भगवान शंकर अपने तन पर जानवर के खाल को क्यों धारण किए रहते है?

इस विषय पर अवश्य ही बहुत सी कथाएं प्रचलित है।

बात सतयुग की है, जब भगवान विष्णु अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा व दुराचारी हिरण्यकशिपु के वध के लिए 11 कलाओं से सुसज्जित भगवान नृसिंह का अवतार धारण करते हैं।

यह बहुत ही भयानक अवतार था जहाँ पर स्वयं भगवान भी अपने भक्त के प्रति मोह और क्रोध के वशीभूत हो गए।

जब देवताओं ने देखा कि सृष्टि का संतुलन बिगड़ रहा है और स्वयं भगवान, भयानक रूप धारण किए हुए हैं। उन्होंने उन्हें वापस उसी शांत चतुर्भुज रूप में आने को आग्रह किया परंतु भगवान का क्रोध शांत होने का नाम नहीं ले रहा था।

और फिर वो अंत में भगवान शिव के पास गए जो कि संहारक है।

भगवान शिव ने अपना वीरभद्र रूप नृसिंह भगवान के पास भेज दिया परंतु उन्हें भी भगवान नृसिंह ने भगा दिया।

फिर उन्होंने अपने सर्वाधिक शक्तिशाली महेश रूप को भेजा परंतु उन्हें भी हार का सामना करना पड़ा।

फिर अंततः भगवान शिव को स्वयं हस्तक्षेप करना पड़ा।

शरभ उपनिषद के अनुसार भगवान शिव ने 64 बार अवतार लिया था, भगवान सरबेश्वर उनका 16वां अवतार माना जाता है। सरबेश्वर के आठ पैर, दो पंख, चील की नाक, अग्नि, सांप, हिरण और अंकुश, थामे चार भुजाएं थीं।

ब्रह्मांड में उड़ते हुए भगवान सरबेश्वर, नृसिंह देव के निकट आ पहुंचे और सबसे पहले अपने पंखों की सहायता से उन्होंने नृसिंह देव के क्रोध को शांत करने का प्रयत्न किया। लेकिन उनका यह प्रयत्न बेकार गया और उन दोनों के बीच युद्ध प्रारंभ हो गया। यह युद्ध करीब 18 दिनों तक चला।

जब भगवान सरबेश्वर ने इस युद्ध को समाप्त करने के लिए अपने एक पंख में से देवी प्रत्यंकरा को बाहर निकाला, जो नृसिंह देव को निगलने का प्रयास करने लगीं। नृसिंह देव, उनके सामने कमजोर पड़ गए, उन्हें अपनी करनी पर पछतावा होने लगा, इसलिए उन्होंने देवी से माफी मांगी।

शरब के वार से आहत होकर नृसिंह ने अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया और फिर भगवान शिव से यह प्रार्थना की कि वह उनकी चर्म को अपने आसन के रूप में स्वीकार कर लें।

भगवान शिव ने नृसिंह देव को शांत कर सृष्टि को उनके कोप से मुक्ति दिलवाई थी। नृसिंह और ब्रह्मा ने सरबेश्वर के विभिन्न नामों का जाप शुरू किया जो मंत्र बन गए।

तब सरबेश्वर भगवान ने यह कहा कि उनका अवतरण केवल नृसिंह देव के कोप को शांत करने के लिए हुआ था। उन्होंने यह भी कहा कि नृसिंह और सरबेश्वर एक ही हैं। इसलिए उन दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

अपने प्राण त्यागने के बाद नृसिंह भगवान विष्णु के तेज में शामिल हो गए और शिव ने उनकी चर्म को अपना आसन बना लिया। इस तरह भगवान नृसिंह की दिव्य लीला का समापन हुआ।

इश्वर एसी लीलाएं केवल हमें जीवन का दर्शन कराने के लिए करते हैं बाकी इश्वर तो निर्विकार है, काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से परे है।

ठीक इसी प्रकार भगवान शिव के क्रोध को भगवान विष्णु शांत करते हैं।

इश्वर दो रूपों में, दो प्रकार के लोगों के लिए, दो प्रकार के विचारों के लिए, स्वयं को विष्णु (सात्विक) व शिव(तामसिक) रूप में प्रकट करते हैं।

इनके अलावा तीसरे विचारों के लोग अस्थाई होते हैं जिनके लिए जीव रूप में ब्रह्मा जी(राजसिक) को विष्णु जी जन्म देते हैं।

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