तुर्रम खां कौन था? जानिए
1857 : स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई। जिसका बिगुल मंगल पांडे ने बैरकपुर में अंग्रेज अफसरों को मारकर फूंका था। यह चिंगारी जल्दी ही दानापुर, आरा , इलाहाबाद, मेरठ, दिल्ली , झांसी होते हुए पूरे भारत में तेज़ ज्वाला बन फैल गई। इसी क्रम में हैदराबाद में अंग्रेजों के एक जमादार चीदा खान ने सिपाहियों के साथ दिल्ली कूच करने से मना कर दिया । उसे निज़ाम के मंत्री ने धोखे से कैद कर अंग्रेजों को सौंप दिया जिन्होंने उसे रेजीडेंसी हाउस से कैद कर लिया गया। उसी को छुड़ाने के लिए एक जांबाज अंग्रेजों पर आक्रमण को तैयार हो उठा। उसकी मदद करने के लिए रेजीडेंसी हाउस के सामने के दो मकान भी बब्बन खान और जयगोपाल दास ने खाली कर दिए।
यह जांबाज़ था – तुर्रेबाज़ खान उर्फ तुर्रम खान। उसका साथी था मौलवी अलाउद्दीन। वालिद थे रुस्तम खान, जन्म: बेगम बाजार।
17 जुलाई , 1857 की रात थी। तुर्रम खान ने 500 स्वंतंत्रता सेनानियों के साथ रेजीडेंसी हाउस पर हमला कर दिया। उसे उम्मीद थी कि रात के अचानक हमले से अंग्रेज भौंचक रह जाएंगे और उन्हें फतेह हासिल होगी।
- पर यह क्या ??
अंग्रेज पूरी तरह से तुर्रम खान के हमले के लिए तैयार थे । उनके तोप गोलों से भर तैनात थे और हज़ारों सिपाही बंदूक भर कर मानो तुर्रम खान और उसके साथियों का ही इंतज़ार कर रहे थे।
दरअसल निजाम के वजीर सालारजंग ने गद्दारी करते हुए अंग्रेजों को पहले ही सूचना दे दी थी। अंग्रेज तोप और बंदूक लेकर तैयार थे, जबकि तुर्रम खान और उसके सैनिकों के पास केवल तलवारें थी। पर वह तुर्रम खान ही क्या जो पीछे हट जाए।
आखिर तुर्रम खान कहावत का अर्थ ही होता है साक्षात मौत देखकर भी पीछे नहीं हटना बल्कि दो दो हाथ करना।
फिर क्या था , तुर्रम खान और उसके साथी अंग्रेजों पर टूट पड़े तुर्रम की तलवार अंग्रेजों के तोप और बंदूक पर भारी पड़ने लगी। पर तुर्रम खान के बाकी साथी उतने शूरवीर न थे। 17 जुलाई , 1857 की सारी रात तुर्रम खान और अंग्रेजों के सेनापति मेजर एस सी ब्रिग्स और डेविडसन, अपने अपने सैनिकों सहित लड़ते रहे। तुर्रम खान के अधिकांश साथी इस जंग में खेत रहे, पर अंग्रेज तुर्रम खान को पकड़ने में नाकामयाब रहे।
नतीजन, उन्होंने तुर्रम खान पर ₹ 5000 का ईनाम (आज के लाखों रुपए) घोषित कर दिया। हिंदुस्तान में गद्दारों की कमी तो है नहीं। सो कुछ समय बाद एक तालुकदार मिर्ज़ा कुर्बान अली बेग ने तूपरण के जंगलों में धोखे से तुर्रम खान को मार गया। पर वह मरा कहाँ। तुर्रम खान आज भी जिंदा है – हर उस शख्स के रूप में जो सत्य और न्याय हेतु अपने से कई गुणा बलशाली शत्रु से भी टकराने से हिचकते नहीं हैं।