जानिए अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम में गायब सैकड़ों भारतीय सिपाहियों की हत्या करके उन्हें कहाँ दफन किया?

अमृतसर से चौबीस किलोमीटर दूर अजनाला में तीन दिनों तक चली खुदाई के बाद 1857 की आज़ादी की पहली लड़ाई के एक महत्वपूर्ण अध्याय का ख़ुलासा हुआ है.

एक गुरुद्वारे के नीचे दबे कुएं की खुदाई के बाद सबूत मिले हैं कि 1857 के सैनिक विद्रोह के बाद ब्रिटिश शासकों ने 282 ‘भारतीय सैनिकों’ को इस कुएं में गाड़ दिया था. पिछले कई वर्षों से इस अभियान में लगे सुरेंदर कोछड़ का कहना है कि खुदाई के बाद क़रीब 90 खोपड़ियाँ, 170 साबुत जबड़े, 26 खोपड़ियों समेत कंकाल और 5000 से अधिक दाँत मिल चुके हैं.

इसके अलावा वर्ष 1830-40 के समय के ईस्ट इंडिया कंपनी के 70 सिक्के, दो ब्रिटिश सेना पदक, 3 सोने के बाज़ूबंद, 4 अंगूठियाँ और कुछ गोलियाँ भी खुदाई में मिली हैं. इन चीज़ों और सैनिकों के अवशेषों को गुरुद्वारे के परिसर में ही रखा गया है जिन्हें देखने के लिए हज़ारों लोग रोज़ आ रहे हैं.

सुरेंदर कोछड़ का कहना है कि उनके अभियान में सबसे बड़ी समस्या थी कुएं के ऊपर बने गुरुद्वारे के प्रबंधकों को वहाँ से गुरुद्वारा हटा कर कुंआ ढ़ूढ़ने के लिए खुदाई के लिए राज़ी करना.

सुरेंदर ने उन्हें सभी उपलब्ध सबूत दिखाए और इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि 10-12 फ़ुट खुदाई करके ये देखा जाए कि कुंए की दीवार दिखाई दे रही है या नहीं. जैसे ही खुदाई में उन्हें कुएं की दीवार दिखी, उन्हें इस बात का भरोसा हो गया कि कोछड़ के तर्कों में दम है.

जब खुदाई शुरू हुई तो पहले दिन हड्डियों के अलावा कुछ नहीं मिला. अगले दिन जब एक कंकाल की मुट्ठी को खोला गया तो उसमें 11 सिक्के मिले. जब उन्होंने पौने चौदह फ़ुट खुदाई कर ली तो उन्हें अंदाज़ा हो गया कि कुंआ 17 फ़ुट गहरा है.

कोछड़ कहते हैं कि आख़िर में 22 खोपड़ियाँ एक साथ मिलीं जो बुरी तरह से गली हुई थीं. इससे ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जब इनको कुएं में फेंका गया तो उसमें थोड़ा-बहुत पानी ज़रूर रहा होगा. ऊपर मिलने वाले पिंजर साबुत थे.

10 मई 1857 को मेरठ छावनी से ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ शुरू हुई भारतीय सैनिकों की बग़ावत की ख़बर आनन-फ़ानन में पंजाब पहुंच गई. 13 मई, 1857 की सुबह परेड के दौरान, बंगाल नेटिव इंफ़ेंट्री की 26 रेजिमेंट के सिपाहियों से एहतियातन हथियार लेकर इन्हें बैरकों में बंद कर दिया गया, हालांकि तब तक उन्होंने किसी विद्रोह में हिस्सा नहीं लिया था.

तीन अधिकारियों की हत्या

लाहौर की मियाँवाली छावनी की निहत्थी एक पलटन ने 30 जुलाई 1857 को बग़ावत कर दी. पलटन का एक सैनिक प्रकाश पांडे, मेजर स्पेंसर को उसी की तलवार से मारकर अपनी पलटन के सैनिकों समेत वहाँ से भाग निकला. भागने से पहले उन्होंने एक और अंग्रेज़ और दो भारतीय अधिकारियों की भी हत्या कर दी.

30 जुलाई 1857 को लाहौर से भागे निहत्थे हिंदुस्तानी सिपाहियों का जत्था 31 जुलाई को सुबह आठ बजे अजनाला से 6-7 मील पीछे रावी नदी के किनारे बसे गाँव डड्डीयाँ के पास बालघाट आ पहुँचा. उन्होंने गाँव के ज़मीदारों से पैदल नदी पार करने का रास्ता पूछा.

ज़मीदारों ने उन भूखे-प्यासे सैनिकों को रोटी-पानी का लालच देकर वहीं रोक लिया और गाँव के एक चौकीदार सुल्तान ख़ाँ के हाथ ये सूचना सौढ़ियाँ के तहसीलदार प्राणनाथ को भेज दी.

उन्होंने ये ख़बर तुरंत अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर फ़्रेडरिक हेनरी कूपर को भिजवा दी. साथ ही थाने और तहसील में मौजूद सभी सैनिकों को इकट्ठा कर दो नावों में इन बाग़ी सिपाहियों के ख़ात्मे के लिए भेज दिया.

सैकड़ों सैनिक बहे

इन सैनिकों ने पहुंचते ही निहत्थे, थके-मांदे सिपाहियों पर गोलियां चलानी शुरू कर दी. करीब 150 सैनिक बुरी तरह ज़ख़्मी होकर रावी नदी के तेज़ बहाव में बह गए और 50 सैनिकों ने गोलियों से बचने के लिए खुद ही रावी नदी में छलांग लगा दी. (फ्रेडरिक हेनरी कूपर, क्राइसिस इन द पंजाब, पृष्ठ 155)

शाम चार बजे तक फ्रेडरिक कूपर भी अपने 80 घुड़सवार सैनिकों के साथ मौके पर पहुंच गए. साथ ही कर्नल बॉयड, रिसालदार साहिब ख़ाँ टिवाणा, रिसालदार बरक़त अली, जनरल हरसुख राय और राजासांसी से शमशेर सिंह संघावालिया भी अपने-अपने सैनिक लेकर वहाँ पहुंचे.

गांव के लोगों की सहायता से ज़िंदा पकड़े गए इन हिंदुस्तानी सिपाहियों को रस्सों से बाँधकर आधी रात के समय अजनाला लाया गया. इनमें से 237 सिपाहियों को जेल में बंद करने के बाद बाकी बचे 45 सैनिकों को अजनाला के एक छोटे से बुर्ज में ठूंस-ठूंसकर बंद कर दिया गया.

इन सबको पहले 31 जुलाई को ही फाँसी पर चढ़ाया जाना था लेकिन भारी बारिश के चलते फांसी अगले दिन के लिए स्थगित कर दी गई. 1 अगस्त, 1857 को बक़रीद थी. अगले दिन पौ फटते ही 237 सैनिकों को 10-10 के समूह में थाने के सामने वाले मैदान में लाया गया.

237 सैनिकों की लाश

वहाँ 10 सिपाहियों ने उन पर निशाना लगाने के लिए पोज़ीशन ले रखी थी. उन्होंने कूपर का इशारा मिलते ही हिंदुस्तानी सिपाहियों पर गोलियाँ दागनी शुरू कर दीं. दस बजे तक वहाँ 237 सैनिकों की लाशों का ढ़ेर लग चुका था.

इसके बाद जब बुर्ज का दरवाज़ा खोला गया तो उस के अंदर ठूंस-ठूंसकर भरे 45 सैनिकों में से कुछ साँस घुटने के कारण पहले ही दम तोड़ चुके थे और बाकी बचे लोग अधमरी हालत में थे.

कूपर ने अपने सैनिकों को हुक्म दिया कि गोलियों से मारे गए सैनिकों के साथ-साथ इन अधमरे सैनिकों को भी थाने के मैदान के पास मौजूद पानी रहित कुंए में फेंककर कुएं का मुंह मिट्टी से बंद कर दिया जाए.

एक तरह पिछले 48 घंटों में बंगाल नेटिव इंफ़ेंट्री की 26 रेजिमेंट के 500 सैनिक मारे जा चुके थे. अमृसतर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर 1892-93 के अनुसार इसके बाद कुंए पर एक ऊंचा टीला बना दिया गया.

इस घटना का ज़िक्र करते हुए कूपर ने अपनी किताब ‘क्राइसिस इन द पंजाब’ में लिखा है, “हमारे सैनिकों ने थके हुए बाग़ी सैनिकों पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दी. उनकी गिनती 500 के करीब थी. वो भूख और थकावट से इतने कमज़ोर हो चुके थे कि नदी की तेज़ लहरों के आगे ठहर न सके. उस समय बहुत तेज़ बारिश हो रही थी. पकड़े गए सैनिकों को दर्दनाक मौत देने के लिए मैं उन्हें फांसी पर लटकाना चाहता था. इसके लिए मैंने सोढ़ियाँ से एक लंबा रस्सा भी मंगाया था लेकिन आसपास कोई मज़बूत पेड़ न होने के कारण मुझे अपना विचार बदलना पड़ा.”

48 घंटे, 500 सैनिक की हत्या

फुलवाड़ी पत्रिका के संपादक ज्ञानी हीरा सिंह दर्द ने 1928 में इसी गाँव के एक बुज़ुर्ग, इस कांड के चश्मदीद गवाह रहे बाबा जगत सिंह से सारी जानकारी लेकर इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका फुलवाड़ी और चांद के नवंबर 1928 के अंक में इस घटना का पूरा विवरण छपवाया है.

हीरा सिंह दर्द लिखते हैं, “उस तेज़ बारिश में ही ज़बरदस्ती उन सिपाहियों के धार्मिक चिन्ह माला और जनेऊ वगैरह तोड़कर पानी में फेंक दिए गए. अगले दिन उनमें से जो सैनिक अभी ज़िंदा थे, उनको मारे गए सैनिकों के साथ ही कुएं में फेंककर दबा दिया गया.”

इस घटना के बारे में दर्द और फ़्रेडरिक कूपर के विवरण में काफ़ी समानता है जबकि इस बात की संभावना नहीं के बराबर है कि ज्ञानी हीरा सिंह दर्द को कूपर की पुस्तक पढ़ने का मौका मिल पाया होगा.

बाबा जगत सिंह भी उस पुस्तक को नहीं पढ़ सकते थे क्योंकि वो निरक्षर थे.

गुरु नानकदेव विश्वविद्यालय, अमृतसर के प्रोफ़ेसर सुखदेव सिंह सोहल का कहना है कि इस घटना का ज़िक्र 1857 के विद्रोह को कुचलने में अहम भूमिका निभाने वाले चीफ़ कमिश्नर सर जॉन लॉरेंस के फ्रेडरिक कूपर को लिखे गए पत्रों में भी मिलता है जिसमें उन्होंने कूपर द्वारा उठाए गए क़दमों की काफ़ी तारीफ़ की है.

इसका ज़िक्र 1911 में प्रकाशित म्यूटिनी रिकॉर्डस में भी है.

जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी पुस्तक विश्व इतिहास की झलक में लिखा है कि 1857 में ब्रिटेन की तरफ़ से क्रूरता के कहीं अधिक उदाहरण मिलते हैं, जिनको बयान तक नहीं किया गया है. ब्रिटेन की तरफ़ से होने वाली क्रूरता संगठित ब्रिटिश अफ़सरों की तरफ़ से होती थी जबकि इसी दौरान असंगठित लोगों की तरफ़ से की गई क्रूरता को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है.

राजकीय सम्मान देने की मांग

प्रोफ़ेसर सोहल का कहना है कि 1857 में विद्रोहियों द्वारा किए गए कानपुर हत्याकांड पर तो कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में काफ़ी शोध हुआ है जबकि अजनाला हत्याकांड पर विदेशी या भारतीय किसी भी शोधकर्ता की नज़र बहुत कम गई है.

शहीदगंज गुरुद्वारा परिसर, जहाँ के कुंए से ये हड्डियां मिली हैं, उसकी प्रबंधक कमेटी के प्रमुख अमरजीत सिंह सरकारिया माँग कर रहे हैं कि इन अवशेषों का डीएनए टेस्ट कराया जाए और इनका पूरे सैनिक सम्मान के साथ विधिवत अंतिम संस्कार किया जाए.

सरकारिया की ये भी मांग है कि उनकी याद में एक स्मारक भी बनाया जाए. कलियाँवाला खू के नाम से मशहूर इस कुएं का नाम बदलकर शहीदों दा खू रख दिया गया है. जिस जेल में इन सैनिकों को रखा गया था वो अब भी मौजूद है, लेकिन अब उसके खंड्हर ही बचे हैं.

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