घूंघट प्रथा यदि प्राचीन भारत की देन नहीं है तो इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई?
घूंघट भारतीय परंपरा में अनुशासन और सम्मान का प्रतीक माना जाता है। घर की बहुओं को परिवार के बड़े बजुर्गों के आगे घूंघट निकालना होता है। हालांकि यह प्रथा अब धीरे-धीरे कम होने लगी है। लेकिन फिर भी गांवों आज भी इस परंपरा का पालन किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह अनिवार्य है ही साथ ही कई महानगरीय परिवारों में भी ऐसा चलन है। सवाल यह है कि भारतीय परंपरा में घूंघट कब और कैसे आया? क्या सनातन समय से यह परंपरा चली आ रही है या फिर कालांतर में यह प्रचलन बढ़ा है?वास्तव में घूंघट हिंदुस्तान पर आक्रमण करने वाले आक्रमणकारियों की ही देन है।
पहले राज्यों में आपसी लड़ाईयां और फिर मुगलों का हमला। इन दो कारणों ने भारत में पूजनीय दर्जा पाने वाले महिला वर्ग को पर्दे के पीछे धकेल दिया। भारतीय महिलाओं की सुंदरता से प्रभावित आक्रमणकारी अत्याचारी होते जा रहे थे। महिलाओं के साथ बलात्कार और अपहरण की घटनाएं बढऩे लगीं तो महिलाओं की सुंदरता को छिपाने के लिए घूंघट का इजाद हो गया।
पहले यह आक्रमणकारियों से बचने के लिए था, फिर धीर-धीरे परिवार में बड़ों के सम्मान के लिए यह अनिवार्य बन गया। आक्रमणकारी चले गए, देश आजाद हो गया लेकिन महिलाओं के चेहरों पर पर्दा छोड़ गए है।
हिन्दू हों या मुसलमान कामगार महिलाओं के इस तरह की समस्याएं कम हैं, उच्च वर्ग की महिलाएं इस सबकी ज़्यादा परवाह नहीं करतीं। बचा मध्यम वर्ग। मध्यम में भी निम्न मध्यम वर्ग इस तरह की समस्याओं या कुरीतियों से ज़्यादा ग्रस्त है। शहरों में काफी खुलापन आया है लेकिन गांव-देहात में आज भी स्थिति जस की तस है। ऐसे मामलों में यूपी, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान में स्थिति काफी ख़राब है। यहां तो लड़कियों के जींस पहनने से लेकर मोबाइल रखने तक पर पंचायतें फरमान जारी करती रहती हैं।
स्त्री शिक्षा के मामले में भी इन राज्यों में अच्छी स्थिति नहीं है।कई घर के लोग ऐसे होते है की जिन्हें ये चीजे ये परंपरा आगे भड़ानी है वह इन प्रथाओ को छोड़ रहे है लेकिन कुछ लोग ऐसे होते है जो की इन परम्पराओ को आगे भड़ाते है। वह आज के युग में भी नही बदलना चाहते। वोह अपनी बात पर अडिग रहना चाहते है। उन लोगो को समझना चाहिए की जमाना बदल रहा है उसके साथ उन्हें भी बदलना चाहिए।
घूंघट की बात इसलिए ज़रूरी है क्योंकि ये बुराई हैं, स्त्रियों पर थोपे गए हैं। और इसलिए भी क्योंकि बहुत से शातिर लोग इसे स्त्री आज़ादी के मुद्दे की बजाय सांप्रदायिक मुद्दे में बदलकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के चक्कर में रहते हैं। वह कभी नहीं चाहते कि किसी भी मुद्दे का संतुलित अध्ययन या समाधान हो। अपनी आलोचना से वे हमेशा घबराते हैं। अभी पिछले दिनों एक परिचित बुर्के के मुद्दे पर बेहद आक्रमक होते हुए हिन्दू महिलाओं के घूंघट के सवाल पर रक्षात्मक हो गए और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के ईरानी राष्ट्रपति हसन रूहानी से मुलाकात के दौरान पहनी गई पोशाक का सवाल आते ही बैकफुट पर चले गए।