क्यों और किस वजह से हिन्दू समाज करीब 800 वर्ष तक गुलाम रहा मुगलो व अंग्रेजो का?

1.महाराजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का सविस्तार वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है। उस वक्त उनका शासन अरब तक फैला था। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे।

इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘सायर-उल-ओकुल’ में किया है। पुराणों और अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे।

तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है ‘सायर-उल-ओकुल’। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि ‘…वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। …उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके। इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आए…।’

2.सम्राट ललितादित्य अथवा मुक्तापिड़ द्वारा छोटे बड़े सभी युद्ध मिलाकर 350 से अधिक युद्ध लड़ने का लिपि दर्ज हैं जिसमे से कुछ ख़ास युद्ध आपके समक्ष रखूंगा ।

(राज्यकाल 431-467 ई)

१) सन 436 (ईस्वी) में चीन ने आक्रमण किया था हरिवर्ष पर (उत्तरी तिब्बत तथा दक्षिणी चीन का समीपवर्ती भूखंड जान पड़ता था) ज्हाव चेंग (Zhaocheng) राजवंश के राजा फेंग होंग बहुत ही क्रूर एवं कपटी राजा था अपने साम्राज्य विस्तार के लिए अपने ही प्रजाओं को मौत के घाट उतार देता था एवं उसका नज़र भारतवर्ष के धन सम्पदा पर था इसलिए सेना लेकर आक्रमण किया था भारतवर्ष पर सम्राट ललितादित्य ने परास्त कर मृत्युलोक पहुँचा दिया एवं चीन राज्य की राजधानी चांग आन , लुओयांग , बीजिंग , पूर्वी चीन सागर क्षेत्र का दूसरा सब से बड़ा आर्थिक केंद्र था जो पूरी तरह से सम्राट ललितादित्य कर्कोटक ने अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर भगवा परचम लहराया था सम्राट ललितादित्य ने चीन में कई हरी मंदिर बनवाए थे चीन इस विषय का उल्लेख विस्तारित तांग, खंड की किताब एवं चीनी इतिहास की रूपरेखा बो-यांग द्वारा लिखा गया हैं।

चीन के अन्य राज्यों के राजा ने सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड के साथ सैनिक संधि किया जिसमे चीनी राजा ने आत्मसमर्पण करते हुये यह संधि किया जब जब भारत पर आक्रमण होगा चीन सम्राट सैनिक भेज कर सहायता करेगा एवं उनके साम्राज्य में अन्य चीनी राजा कभी दखल नहीं देंगे चीन के अन्य राज्य जो ललितादित्य के साम्राज्य सूचि में सम्मिलित किया गया हैं उन राज्यों में व्यापर करने की अनुमति माँगा था जिसके बदले चीन कर (tax) देंगे सम्राट ललितादित्य को यह सब उस संधि में लिखा था एवं इसका प्रमाण चीन के एक राज्य वंश ‘ता-आंग’ के सरकारी उल्लेखों में मिलता है। Reference-: The Sixteen Kingdoms Author-: Zheng Yin

सम्राट ललितादित्य का यूरोप विजय अभियान-:

1) सन 439 (ईस्वी) में लड़ें गये सबसे लम्बा युद्ध था जिसे “Battle Of Caucasus” कॉकस या कौकसस जो की स्पेन का राजधानी थी प्राचीनकाल में जहाँ सम्राट ललितादित्य ने थियोडोरिक प्रथम को परास्त कर ललितादित्य ने कॉकस या कौकसस , स्पेन, दमास्कस पर भगवा परचम लहराया था । इस तरह से सम्राट ललितादित्य कर्कोटक ने लगातार 18 युद्ध लड़े थे बाल्टी साम्राज्य, थियोडोसियाँ साम्राज्य, के साथ । सम्राट ललितादित्य से युद्ध में परास्त होने के बाद यवनों ने सम्राट ललितादित्य के साथ संधि कर स्पेन साम्राज्य अरब , सीसिली (sicily),मेसोपोटामिया, ग्रेटर अर्मेनिआ, कैरौअन (Kairouan) (वर्तमान में इसे तुनिशिया देश के नाम से जाने जाते हैं ) तुर्क , कजाखस्तान , मोरक्को , अफ्रीका , पर्शिया एवं अनेक देश सामिल थे ये 72 प्रतिशत यवन साम्राज्य का भूभाग एवं पूरी अरब सागर , तिग्रिस , नील नदी पर सम्राट ललितादित्य ने भगवा ध्वज लहराया था –

Reference-: Historia Gothorum Page 89 Author-: Jordanes

2) सन 452 (ईस्वी) पूर्वी यूरोप विजय करने निकले थे रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त किया बाईज़न्टाइन साम्राज्य के राजा व्हॅलेंटिनियन तृतीय के साथ युद्ध की व्याखान मिलता हैं इन्हें हराकर सम्राट ललितादित्य ने क़ुस्तुंतुनिया, रूस पर कब्ज़ा किया आठवी सदी तक क़ुस्तुंतुनिया (कोंस्तान्तिनोपाल) राजधानी था यूरोप का । इसके उपरांत डुक पोलिश राजा को परास्त कर पोलिश (पोलैंड) विजय कर भगवा झंडा लहरा था । सम्राट ललितादित्य ने रूस के साथ साथ बॉस्निया के अधीन अन्य यूरोपी देशो को अपने विजय अभियान में सम्मिलित कर साम्राज्य को यूरोप तक फैलाया था एवं इसके उपरांत सम्राट ललितादित्य मुक्तापिड़ ने पश्चिम और दक्षिण में क्रोएशिया पूर्व में सर्बिया और दक्षिण में मोंटेनेग्रो उत्तरपूर्वी यूरोप अल्बानिया उत्तर में कोसोवो पूर्व में भूतपूर्व यूगोस्लाविया और दक्षिण में यूनान तक सफलतापूर्वक सैन्य अभियान कर विश्व विजयता की उपाधि हासिल कर लिया था ।

3. शैलेंद्र राजवंश

शैलेन्द्र दो शब्दों – शैल + इंद्र से मिलकर बना है। शैल का अर्थ है पहाड़ या पत्थर और इंद्र का अर्थ स्वामी या अधिपति होता है। इस तरह शैलेंद्र का अर्थ हुआ पहाड़ों के स्वामी या जिनका पहाड़ों पर आधिपत्य हो।

अरबी व्यापारी इब्न खोरदजेब (844-848 ईसवी सन्) के मुताबिक बादशाह शैलेंद्र के राज के एक दिन का राजस्व 200 मन सोना था। इब्न रोस्ता (903 ईसवी सन्) ने शैलेंद्र का उल्लेख राजाओं के राजा के रूप में किया है। उसने यह भी कहा है कि उस समय बादशाह शैलेंद्र जैसा शक्तिशाली और संपन्न कोई दूसरा शासक नहीं था।

शैलेंद्र राजा भारत समेत पश्चिमी देशों के व्यापारियों के जहाजों को अपने क्षेत्र से गुजरने की अनुमति देते थे। भारत के चोल और शैलेंद्र राजाओं के बीच इस अनुमति को लेकर हमेशा संघर्ष होता रहता था। चोल साम्राज्य की भी समुद्री सेना बहुत मजबूत थी।

सुलेमान (सन् 851 ईसवी) के मुताबिक देशों के व्यापारियों के जहाजों को अपने क्षेत्र से गुजरने की अनुमति देते थे। भारत के चोल और शैलेंद्र राजाओं के बीच इस अनुमति को लेकर हमेशा संघर्ष होता रहता था। चोल साम्राज्य की भी समुद्री सेना बहुत मजबूत थी।

सुलेमान (सन् 851 ईसवी) के मुताबिक शैलेंद्र साम्राज्य ने कंबूज राज्य को अपने आधिपत्य में ले लिया था और चंपा पर भी अपनी आधीनता स्वीकार करने के लिए लगातार कोशिश करते रहे। लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। सन् 802 ईसवी में शैलेंद्र ने ख्मेर राजा महिपतिवर्मन की हत्या कर दी और जयवर्मन को गद्दी पर बिठा दिया, जो उनकी हाथों की कठपुतली था।

नालंदा विश्वविद्यालय और कांचीपुरम् के शिक्षण संस्थाओं में सुवर्णभूमि और चीन से बड़ी संख्या में छात्र विद्यार्जन करने आते थे। विश्वविख्यात नालंदा विश्वविद्यालय को बौद्ध विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता है, लेकिन सच्चाई यह है कि यह एक धर्मनिरपेक्ष विश्वविद्यालय था, जहाँ बौद्ध दर्शन के साथ ही वेद, वेदांत, उपनिषद, गणित, विज्ञान, खगोलीय गणना, ज्यामिती, मूर्तिकला और यहाँ तक कि संगीत और नृत्य की भी शिक्षा दी जाती थी ।

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