केले का फल तोड़कर क्यों पकाना पड़ता है पेड़ पर क्यों नहीं पकता?
प्राकृतिक रूप से केला पेड पर ही पकना प्रारंभ हो जाता है। जब गुच्छे के सबसे प्रारंभ के एक दो केले पीले होने लगते हैं, तब पूरे गुच्छे को ऊपर से काट कर पेड से अलग कर के टांग कर रख दिया जाता है। ऐसा करने से रोज उस गुच्छे के 5–7 केले पकने लगते हैं, व 6–7 दिन मे पूरा गुच्छा पक जाता है।
यह तो हुआ प्राकृतिक तरीका। जो घरों मे केले उगाते हैं, वे यही तरीका अपनाते हैं।
एक समय मेरे सरकारी क्वार्टर मे करीब 20 केले के पेड थे, ये हाल था कि कम से कम एक गुच्छा हमारे पिछले बरांमदे मे टंगा ही रहता था। कभी कभी तो लाईन से तीन चार गुच्छे होते थे।
आजकल व्यावसायिक केला बागानो मे लाखों पेड लगे होते हैं। अधिकांश पेड टिश्यूकल्चर तकनीक से विकसित किए जाते
बागान मे जैसे ही गुच्छे एक विशिष्ठ आकार तक पहुंचते है, उसे पेड से काट कर अलग कर दिया जाता है। अभी वह पूरी तरह कच्चा व हरा होता है। दलालों के ट्रक सीधे खेतों मे पहुंचते हैं, व पूरा ट्रक लोड कर के सीधे मंडी मे पहुचा दिया जाता है।
वहां उनकी नीलामी की जाती है जहां विभिन्न थोक विक्रेता उस माल को बोली लगाकर क्विंटल के भाव खरीद लेते हैं।
अब वे उन केलों की भट्ठी लगाते है, अर्थात एक बडे से कमरे मे सभी गुच्छों को एक के ऊपर एक कतारों मे कमरे मे जमा दिया जाता है, पूरा कमरा भर जाने पर उसमे एथिलीन गैस की आवश्यक मात्रा छोड कर कमरा बंद कर दिया जाता है।
एथिलीन, पौधों में प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली गैस है, जो कि पौधों में शारीरिक परिवर्तन भी करती है तथा जब इसकी मात्रा 0.1 से 1.0 पीपीएम हो जाती है तो यह फलों के पकने की क्रिया को प्रोत्साहित करता है। बाहर से प्रयुक्त यह एथिलीन भी यही करती है।
निश्चित समय पर कमरा खोल कर लगभग पके केले निकाल कर थोक विक्रेता, रिटेलर्स को किलो के भाव बेच देता है। रिटेलर्स उन्हे दर्जन के भाव हमे बेचते हैं।